श्रीः
श्रीमते रामानुजाय नमः
श्रीमद् वरवरमुनये नमः
श्री वानाचलमहामुनये नमः
जय श्रीमन्नारायण ।
आळ्वार एम्पेरुमन्नार जीयर् तिरुवडिगळे शरणं ।
पूर्व अनुच्छेद मे ओराण्वळि गुरु परम्परा के अन्तर्गत सातवें आचार्य “उय्यकोण्डार्” स्वामीजी की जीवनी का संक्षिप्त परिचय दिया था । इस कड़ी में हम ओराण्वळि के अन्तर्गत आठवें आचार्य (मणक्काल्नम्बि) के जीवन पर संक्षिप्त प्रकाश डालेंगे ।
तिरुनक्षत्र : माघ मास , माघ नक्षत्र
अवतार स्थल : मणक्काल
(श्रीरंगम के पास कावेरी नदी के तट पर स्थित एक छोटा सा गाँव मणक्काल)
आचार्य : उय्यकोण्डार
शिष्यगण : आळवन्दार, तिरुवरंगपेरुमाळ् अरयर् (आळवन्दार के पुत्र), दैवतुक्करसु नम्बि, पिळ्ळै अरसु नम्बि, सिरु पुळ्ळूरुडैयार् पिळ्ळै, तिरुमालिरुन्चोलै दासर, वंगिपुरत्तु आय्चि
मणक्काल्नम्बि , श्रीराममिश्र नाम से भी जाने जाते है इनका जन्म मणक्काल नामक एक छोटे गाँव में हुआ । इनकी ख्याति (प्रसिद्धि) संप्रदाय में, मणक्काल्नम्बि के नाम से हुई । मणक्काल्नम्बि अपने आचार्य (उय्यकोण्डार) की सेवा में बारह वर्ष रहे । इन बारह वर्षो के मध्य उनके आचार्य की पत्नी का परमपद की और प्रस्थान हुआ । उसके पश्चात मणक्काल नम्बि ने स्वयं अपने आचार्य के घर (तिरुमाळिगै) और परिवार के देख रेख की ज़िम्मेदारि सम्भाली ।
अपनी आचार्य निष्ठा और घर परिवार की जिम्मेदारी सँभालने का परिचय देते हुए , एक घटना बहुत चर्चित है. एक बार आचार्य उय्यकोण्डार की पुत्रियाँ कावेरी नदी के तट से वापस आ रहीं थी, तब रास्ते में कीचड़ के कारण वह आगे नहीं बढ़पाती, और वहीँ रुकजाति है. यह देख मणक्काल्नम्बि छाती के बल कीचड़ पर लेट जाते है और अपने आचार्य की पुत्रियों को अपनी पीठ पर चलते हुए कीचड़ पार करने को कहते है । उनके आचार्य उय्यकोण्डार को जब इस घटना का वृतांत मिला , तब वह मणक्काल्नम्बि की आचार्य चरणों में भक्ति और जिम्मेदारी वहन करने की क्षमता को देख अत्यंत ही प्रसन्न हुए और मणक्काल्नम्बि से पूछा – हे मणक्काल्नम्बि ! क्या इच्छा है तुम्हारी – यह पूछने पर मणक्काल्नम्बि कहते है – निरन्तर मै आप की सेवा मे तत्पर रहूँ बस यही मेरी इच्छा है ।
उय्यकोण्डार अती प्रसन्न होकर मणक्काल्नम्बि को द्वयमहामन्त्र का उपदेश फिर से करते है । (संप्रदाय में ऐसी मान्यता है की जब श्रीवैष्णवाचार्य प्रसन्न होते है तब वे अपने शिष्य को द्वयमहामन्त्र का उपदेश करते है) ।
उय्यकोण्डार अपने अन्तकाल मे मणक्काल्नम्बि को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त करते है और मणक्कालनम्बि को अपने अंतिम उपदेश मे नाथमुनि स्वामीजी को दिए वचन अनुसार उनके पौत्र , ईश्वरमुनि के पुत्र यामुनाचार्य को सदधर्ममार्ग मे प्रशिक्षण देकर, हमारे सत्सांप्रदाय का उत्तराधिकारि नियुक्त करने को कहते है ।
ईश्वरमुनि के यहाँ यमुनैतुरैवर् का जन्म होता है, मणक्कालनम्बि, यमुनैतुरैवर् की सम्प्रदायानुसार पंञ्च संस्कार दीक्षा संपन्न करवाते है (संप्रदाय रिवाजानुसार शंख चक्र प्रदान करना) यानि पंञ्च संस्कार, शिशु के नामकरण संस्कार (जो ग्यारहवें दिन पर होता है) के समय पर भी किया जाता था । उस काल में बाल्य काल में ही शिशु को तिरुमन्त्र का उपदेश देकर , उसका गोपनीय अर्थ समझने की मनन करने की बात समझाते थे, जब बालक यौवन अवस्था को प्राप्त करता था, तब उसे भगवान की मूर्ति / शालग्राम की आराधना सिखाई जाती थी (तिरुवाराधनम्) ।
यमुनैत्तुरैवर बचपन से ही अती कुशाग्र बुद्धि के धनि थे प्रतिभाशालि और बुद्धिमान भी थे, इसी कारण वह आळवन्दार (माने जो रक्षा करने की लिए आये हो – इसकी जानकारी आळवन्दार के चरित्र में पायी जा सकती हैं) से जाने गए है, अपनी इसी प्रतिभा के बल पर कोलाहल पंडित को शास्त्रार्थ में पराजित कर , तत्कालीन राजा से आधा राज्य पारितोषक स्वरुप में प्राप्त कर , आलवन्दार नाम भी प्राप्त किया | तत्पश्चात यमुनैत्तुरैवर , राज्य के परिपालन मे व्यवस्त हो गए अतः कुछ इस प्रकार वह इस भौतिक जगत के भवसागर में व्यवस्त हो गए, वह अपने इस धरा पर अवतरण का कारण ही भूल गए । मणक्काल्नम्बि यह सब देखकर अत्यंत दुखित हुए और अपने आचार्य के वचन को याद कर, उन्हें (आळवन्दार) भगवद्भक्ति के सद्मार्ग का दर्शन करवाने की मन में ठान ली ।
इसी सद्भावना से मणक्काल्नम्बि जब आळवन्दार से मिलने गए तो मुख्यद्वारपालक ने उन्हे रोक दिया । मणक्काल्नम्बि की सद्भावना आळवन्दार के प्रती (जो उनके प्रिय शिष्य थे) और मज़बूत हुई और इसी भावना से उन्होने छुपके से राजप्रासाद के प्रधान रसोइये से मित्रता कर ,कहा की हर रोज़ अपने राजा (आळवन्दार) को हरी सब्ज़ी खिलाना और वह मैं हर रोज़ लेकर आऊंगा ताकि इससे तुम्हारे राजा का स्वास्थ्य सही बना रहे । इसके पश्चात आळवन्दार को हर रोज़ हरी सब्जी भोजन में मिलती रही, जिससे उनकी आसक्ति हरीसब्ज़ी में और भी अधिक हो गयी. उनमे और उनके विचारों में धीरे धीरे परिवर्तन होने लगा । तभी अचानक एक दिन हरी सब्ज़ी भोजन में न मिलने पर आळवन्दार अपने रसोईयों से पूछते है “आज हरी सब्ज़ी क्यों नही बनायीं ” तो प्रमुख रसोइया कहता है, एक श्रीवैष्णव आया करते थे, उनके आग्रह पर हम उनकी हरी सब्ज़ी आपको हर रोज़ परोसा करते थे, पर वह आज नही आये, अतः हरी सब्जी आज भोजन में नहीं आयी । यह जानकर आळवन्दार अपने द्वारपालक को आज्ञा देते है की वह श्रीवैष्णव को उनके दरबार मे आमन्त्रित करें । इस प्रकार आमंत्रन पाकर अती प्रसन्न मणक्काल्नम्बि आळवन्दार से मिलने राजदरबार में जाते है। वहाँ आळ्वन्दार मणक्काल्नम्बि से पूछते है क्या उनको धन की ज़रूरत है तब मणक्काल्नम्बि कहते है मेरे पास श्रीनाथमुनि के द्वारा प्रसादित अकूत धन है जो मै तुम्हे (आळवन्दार) देना चाहता हूँ । यह सुनकर अती प्रसन्न आळवन्दार अपने अनुचरों को आज्ञा देते है की कभी भी मणक्काल्नम्बि आए तो उन्हे तुरन्त अन्दर भेज दे ।
इस प्रकार आळवन्दार के विषेश अनुग्रह से मणक्काल्नम्बि, उन्हे भगवद्गीता का सदुपदेश देते है जिसे सुनकर आळवन्दार मे परिवर्तन होने लगता है । मणक्काल्नम्बि के अनुग्रह से प्राप्त विषेश ज्ञान से परिवर्तित आळवन्दार उनसे पूछते है – “भगवद्गीता का सारांश जिससे भगवान का साक्षात्कार हो” तब मणक्काल्नम्बि उन्हें चरमश्लोक का गोपनीय रहस्य बतलाते है । इसके पश्चात मणक्काल्नम्बि आळवन्दार को तिरुवरंगम ले जाते है और भगवान के दिव्य मंगल (अर्चमूर्ति) स्वरूप का दर्शन करवाते है। तिरुवरंगम भगवान श्री रंगनाथजी के दिव्य स्वरुप को देखकर आळवन्दार भौतिक जगत से जुडी हुई डोरी को परिपूर्ण त्यागते है ।मणक्काल्नम्बि अपने वैकुण्ठ गमन से पेहले आळवन्दार को
1) श्री नाथमुनि के बारें मे सदैव सोचने का उपदेश देते है।
2) उन्हें अपने बाद सम्प्रदाय का उत्तरदयित्व सोंपते है।
3) भविष्य मे उनके जैसा एक परिवर्तकाचार्य को सम्प्रदाय के उत्तरदायित्व को सौपने की घोषणा करने को कहते है।
अपने आचार्य मणक्काल्नम्बि के आदेश और उनको दिए वचनानुसार आळवन्दार ने श्री रामानुजाचार्य को भविष्य परिवर्ताकाचार्य के रूप मे घोषित किये । अतः हमारे सत्साम्प्रदाय के पथप्रवर्तक श्रीरामानुजाचार्य हुए ।
तो इस प्रकार अपने आचार्य को दिया गया वचन पूर कर मणक्कालनम्बि परमपदम को प्रस्थान हुए ।
मणक्काल्नम्बि का तनियन
अयत्नतो यौमुनम् आत्म दासम् अलर्क्क पत्रार्प्पण निष्क्रयेण
यः क्रीत्वानास्तित यौवराज्यम् नमामितम् राममेय सत्वम् ॥
अडियेन सेतलूर सीरिय श्रीहर्ष केशव कार्तीक रामानुज दासन् और अडियेन वैजयन्त्याण्डाळ् रामानुज दासि
अडियेंन इन्दुमति रामानुज दासि
5 thoughts on “मणक्काल्नम्बि”
Comments are closed.