:श्रीः
श्रीमते रामानुजाय नमः
श्रीमद् वरवरमुनये नमः
श्री वानाचलमहामुनये नमः
ओराण्वळि गुरुपरम्परा के अन्तर्गत सातवे आचार्य श्री मणक्काल्नम्बि के संक्षिप्त जानकारी के बाद अब हम , अपनी गुरु परम्परा में आगे बढ़ते हुए, ओराण्वळि गुरु परम्परा के अन्तर्गत आठवे आचार्य श्री आळवन्दार स्वामीजी के बारें जानते है |
तिरुनक्षत्र : दक्षिणात्य आषाढ मास का उत्तराषाढा नक्षत्र
अवतार स्थल : काट्टुमन्नार् कोविल,
आचार्य : मणक्काल नम्बि
शिष्यगण : पेरिय नम्बि (महापूर्ण स्वामीजी) , पेरिय तिरुमलैनम्बि (श्री शैलपूर्ण स्वामीजी), तिरुकोष्टियूर् नम्बि (गोष्ठिपूर्ण स्वामीजी) , तिरुमालै आण्डान् (मालाधार स्वामीजी), दैववारि आण्डान् , वानमामलै आण्डान्, ईश्वर् आण्डान्, जीयर् आण्डान्, आळवन्दार आळ्वान् , तिरुमोगूर् अप्पन्, तिरुमोगूर् निन्रार्, देवापेरुमाळ्, मारानेरीनम्बि, तिरुकच्चिनम्बि (कांचीपूर्ण स्वामीजी) , तिरुवरंग पेरुमाळ् अरयर्, (मणक्काल नम्बि के शिष्य और आळवन्दार् के पुत्र) , तिरुकुरुगूर दासर्, वकुलाभरण सोमयाजियार्, अम्मंगि , आळ्कोण्दि , गोविन्द दासर् (जिनका जन्म मदुराई में हुआ), नाथमुनि दासर् (राजा के पुरोहित), तिरुवरंगतम्मान् (महारानी)
ग्रन्थ : चतुश्लोकी , स्तोत्र रत्न , सिद्धि त्रयं, आगम प्रमान्यम और गीतार्थ संग्रह
इनका परमपद तिरुवरंगम में हुआ।
यमुनैतुरैवर् (यामुनाचार्य) का जन्म नाथमुनि के पुत्र ईश्वरमुनी के यहाँ दक्षिणात्य आषाढ़ माह के उत्तराषाढ़ा नक्षत्र में काट्टुमन्नार् कोविल, वीर नरायणपुराम , वर्तमान मन्नारगुडी गांव में हुआ । इन्हें पेरिय मुदलियार्, परमाचार्य, सिम्हेन्द्रर् इत्यादि नामों से भी जाना जाता हैं लेकिन अन्ततः आळवन्दार् के नाम से प्रसिद्धि हुये ।
श्री आळवन्दार ने अपना विद्याध्यन, अपनी प्रारंभिक शिक्षा श्रीमहाभाष्यभट्टर से प्राप्त किये थे ।
यामुनाचार्यजी के जीवन की कुछ प्रसिद्द घटनाये इस तरह है ,
उस समय के राजा ( कुछ जगह चोलवंश का उल्लेख है तो कुछ जगह पंड्या राजवंश को, पर इतिहास उस समय चोल राजवंश की चर्चा करता है) . उस समय काल में राजदरबार के विद्वान पंडित, राज पुरोहित अक्किआळ्वान थे। उनका स्वाभाव थे उनसे शास्त्रार्थ में जो हार जाता था उसे से मनमाना लगान वसूल करते थे. अपने इसी स्वाभाव वश वह राज्य के सारे पंडितों को लगान देने का आदेश दे देते है. इसे सुनकर महाभाष्य भट्टर् चिन्तित हो जाते हैं। उनकी चिंता देख यमुनैतुरैवर् उन्हें आश्वासन देते हैं कि वह किसी भी तरह से उन परिस्थितियों का सामना करेंगे। यामुनाचार्यजी की अवस्था उस समय लगभग १२ वर्ष थी, इस राजादेष के प्रति उत्तर (समाधान) में उन्हें एक श्लोक भेजते हैं, जिसमे वह स्पष्ट रूप से कहते है, वह उन सब कवियों का जो अपना स्वप्रचार कर अन्य विद्वानों पर अत्याचार करते है , उनका नाश करेंगे । राजा यमुनैतुरैवर को राजदरबार में हाज़िर होने का आदेश अपने सिपाहियों के हाथ भिजवाते है | यमुनैतुरैवर् उन्हें (सिपाहियों को) तिरस्कार कर कहते हैं, उन्हें बुलाने के लिए उचित सम्मान और गौरव से बुलावा भेजेंगे तो दरबार में उपस्थित होंगे। यह सुनकर राजा यमुनैतुरैवर् को ससम्मान पालकी भेजकर दरबार में बुलवाते है। यमुनैतुरैवर् उसमे आसित हुए राजा के दरबार पहुँचते हैं।
राजदरबार में यमुनैतुरैवर् के तेज और ओज को देख, महारानी राजा से कहती है की, उसे विश्वास है की , यह ओजस्वी बालक ही शास्त्रार्थ में विजयी होगा, और शर्त लगाती है की अगर बालक हार गया तो वह महल में दासी की तरह रहेगी, इस पर राजा महारानी को वचन देता है की, अक्किआळ्वान हार जायेगा तो बालक को आधा राज्य दे देंगे.
अक्किआळ्वान अपने शास्त्रार्थ मे निपुणता और हुनर के आधार पर गर्वित होकर यमुनैतुरैवर से कहते है की वह इस शास्त्रार्थ में उनके प्रश्नो को सकारात्मक समाधान करेंगे, यह सुन यमुनैतुरैवर । यह सुन यमुनैतुरैवर तीन प्रश्न पूछते है. जो इस प्रकार है –
पहला – आप ( अक्की आलवान ) के माताजी बंध्या (बाँझ ) स्त्री नहीं है।
दूसरा – हमारे राजा धार्मिक पुण्यवान है, हमारे राजा समर्थ (काबिल/योग्य/सक्षम) है।
तीसरा – राजा की पत्नी (महारानी) पतिव्रता स्त्री है।
यह प्रश्न कर यमुनैतुरैवर ने कहा अब इन तीनो का खण्डन अपने शास्त्रार्थ के नैपुण्य से करिये ।
यह तीन प्रश्न सुनकर अक्किआळ्वान दंग रह गए । वह एक भी प्रश्न का खण्डन नही कर पाए क्योंकि, इन प्रश्नो का खंडन स्वयं की माता को बाँझ बताना , राजा को अधर्मी बतलाना और महारनी के पतिव्रत्य पर आक्षेप लगाना होता. वह ऐसे असमंजस मे पड गए की अगर वह जवाब दे तो राजा बुरा मान जायेंगे और अगर इसका समाधान नही (खण्डन) करें तो भी राजा बुरा मानेंगे क्योंकि वह एक बालक से हार गए । इसी विपरीत चिंतित अवस्था मे वह यमुनैतुरैवर से अपनी पराजय स्वीकार कर लेते है। यमुनैतुरैवर को ही इन प्रश्नो का खंडन कर समाधान करने की बात कहते है । इसके उत्तर मे यमुनैतुरैवर कुछ इस प्रकार कहते है।
पहला – शाश्त्रों के अनुसार , वह माँ बाँझ (निस्संतान) होती है जिसका एक ही पुत्र/पुत्री हो (आप अपनी माँ की एकलौती संतान हो, अतः आपकी माँ एक बाँझ (निस्संतान) स्त्री है ) ।
दूसरा – शास्त्रों में बतलाया है की , प्रजा के पाप पुण्य में राजा का भी भाग होता है, ऐसे में प्रजा के पाप का भागी होने से पुण्यवान नहीं कहलाता । हमारे राजा बिलकुल भी काबिल/समर्थ नही है क्योंकि वह केवल अपने राज्य का ही शासन करते है पूरे साम्राज्य के अधिपति नही है।
तीसरा – शास्त्रों के अनुसार राजा में अन्य देव भी विद्यमान रहते है , विवाह के समय कन्या को , पहले वेद मंत्रों से देवतावों को अर्पित करते है। इस कारण रानी को पवित्र नही मानते है।
अक्किआळ्वान यमुनैतुरैवर के सक्षम और आधिपत्य को स्वीकार करते हुए अपने आप को यमनैतुरैवर से पराजित मानकर उनके शिष्य बन जाते है । यहाँ यमुनैतुरैवर् शाश्त्रों के आधार पर दिव्य स्पष्टीकरण से विशिष्टाद्वैत सिद्धान्त की स्थापना करते है । महारानी उन्हें आळवन्दार नाम से सम्बोधित करती हैं (जिसका मतलब हैं की वह जो उनकी रक्षा करने , सब पर विजय पाने के लिए आये हैं) और उनकी शिष्या बन जाती हैं । राजा महारानी को दिए वचन अनुसार यामुनाचार्यजी को अपना आधा राज्य दे देता है |
मणक्काल् नम्बी के परिचय में हमने जाना की कैसे , मणक्काल नम्बि कैसे यामुनाचार्यजी को आध्यातिम्क जीवन में प्रवेश करवाते हैं, और उन्हें अपने संप्रदाय का दर्शन प्रवर्तक बनाने के लिए श्री रंगम ले आते हैं |
श्रीरंगम पहुँचने के पश्चात, सन्यास दीक्षा ग्रहण करते है , और संप्रदाय के प्रचार में जुट जाते हैं , इस दरमियान यामुनाचार्यजी के अनेक वैष्णव शिष्य बनते हैं |
मणक्काल् नम्बी यामुनाचार्यजी को बतलाते है की वे कुरुगै कावलप्पण् स्वामी से अष्टान्ग योग का रहस्य सीखे । जब यामुनाचार्यजी, कुरुगै कावलप्पण् स्वामी से मिलने पहुँचते हैं, तब कुरुगै कावलप्पण् स्वामी योग में भगवद् अनुभव में मग्न रहते हैं । पर उन्हें यामुनाचार्यजी के आगमन का आभास हो जाता है, कुरुगै कावलप्पण् , यामुनाचार्यजी से कहते हैं की उन्हें आभास हुआ की एम्पेरुमान् उनके कंधो के ऊपर से आळवन्दार को देखने की कोशिश कर रहे है, जिससे उन्हें पता चल गया की श्री नाथमुनि के वंशज कोई आये हैं। (क्योंकि नाथमुनि का वंश एम्पेरुमान् को अत्यंत प्रिय हैं इसी लिये उत्सुकतावश उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे )
वे उन्हें अष्टान्ग योग रहस्य सिखने के लिए अपने परमपद प्रस्थान के कुछ समय पहले एक उपाय बतलाते है । पर यमुनाचार्यजी उस उपाय को भूलकर तिरुअनतपुरम यात्रा पर चले जाते है। बाद में इस बात का उन्हे एहसास होता है की कुरुगै कावलप्पण् से योगरहस्य सीखने मे देरी हो गई |
जब यमुनाचार्यजी तिरुअनन्तपुर दर्शन की यात्रा पर गए तब उनके एक शिष्य दैवावारी आण्डान् , आचार्य से वियोग सहन नहीं कर पाने के कारण , वे तिरुअनन्तपुर की ओर प्रस्थान करते हैं और उसी समय आळवन्दार् तिरुअनन्तपुर से श्री रंगम के लिए प्रस्थान कर रहे थे । उन दोनों की मुलाकात तिरुअनन्तपुर के मुख्य द्वार पर हो जाती है । दैवावारी आण्डान् अपने आचार्य को देखकर बहुत खुश होते हैं और उनके साथ ही श्री रंगम लौटने का फैसला करते हैं । आळवन्दार् उनसे अनंतशयन एम्पेरुमान् के दर्शन कर आने के लिए कहते है, तब जवाब देते हैं की मेरे लिए एम्पेरुमान् से भी अधिक आळवन्दार् हैं । ऐसे विशेष आचार्य निष्ठ थे ।
श्री रंगम वापस लौट आने पर , उन्हें श्री वैष्णव संप्रदाय के अगले उत्तराधिकारी की नियुक्त करने की चिन्ता घेर लेती हैं । इसी दौरान, यामुनाचार्यजी को इळयाळ्वार् (श्री रामानुज स्वामी) के बारे में जानकारी मिलती हैं जो कान्चिपूर् में यादव प्रकाशर् के पास शिक्षा अभ्यास कर रहे थे । वे कान्चिपूर् पहुँच जाते हैं और देवापेरूमाळ् कोविल में करुमाणिक्क पेरूमाळ् सन्निधि के सामने अपना दिव्य अनुग्रह इळयाळ्वार् पर बरसाते हैं, जो उस समय सन्निधि के सामने से गुजर रहे थे । आळवन्दार् देवापेरूमाळ् सन्निधि पहुँचते हैं और एम्पेरुमान को प्रार्थना करते है की रामानुज को शरणागति प्रदान करे , इळयाळ्वार् को संप्रदाय के अगला उत्तराधिकारी नियुक्त किया जाये । इस प्रकार आळवन्दार् ने एम्पेरुमानार् दर्शन के बीज़ बोये जो एक महा वृक्ष के रूप में परिवर्तित होने वाले थे । वे तिरुकच्चिनम्बी से विनती करते हैं की इळयाळ्वार् की आध्यात्मिक् प्रगति में उन्हें सहायता करे |
काल के अंतराल में आळवन्दार् बहुत रुग्ण हो जाते हैं और अपने सभी शिष्यों को तिरुवरंग पेरुमाळ् अरयर् पर निर्भर रहने की बात बतलाते है । अपने अन्तिम समय में वैष्णवों के लिए कुछ उपदेश देते है , उनमे कुछ इस प्रकार है.
१. श्रीवैष्णवों के लिए दिव्यदेश (दिव्यस्थल) ही प्राण है इस दृढ़ विश्वास के साथ सदैव इन दिव्य क्षेत्रों मे भगवद्-भागवत कैंकर्य करते रहे
२. श्रीवैष्णवों के लिए तिरुप्पाणाळ्वार के बतलाये अनुसार , भगवान तिरुवरंग सदैव पूजनीय है और उनकी पूजा/सेवा, दर्शन उनके तिरुवेडी (चरणारविन्द) से शुरू कर तिरुमुडि (शीश) तक करनी चाहिये क्योंकि तिरुप्पाणाळ्वार भगवान के चरणकमलों मे सदैव रहते है (जिन्होंने भगवान के श्री चरणकमलों का आश्रय लिया है) । श्री आळवन्दार कहते है की उनके विचार मे तिरुप्पाणाळ्वार (जिन्होंने पेरियपेरुमाळ का गुणगान किया है) , कुरुम्बरुतनम्बि (जिन्होंने मिट्टि के फूल पेरियपेरुमाळ को समर्पित किया) , तिरुकच्चिनम्बि (जिन्होंने भगवान देवपेरुमाळ की पंखा झलने की सेवा की) सदैव समान है और उनकी तुलना कदाचित नही कर सकते क्योंकि हर एक अपने भगवद्कैंकर्य मे उत्कृष्ट थे ।
३. श्री आळवन्दार कहते है की एक प्रपन्न को कदाचित भी अपनी आत्मयात्रा या देहयात्रा का चिंतन नही करना चाहिये क्योंकि आत्मा भगवान के आधीन है अतः भगवान खुद इसकी देखभाल करेंगे और देह जो पूर्वकर्मानुसार प्राप्त है वह (देह) हमारे पाप / पुण्य के अनुसार चालित है । अतः हमे किसी के बारें मे चिंतित होने की आवश्यकता नही है ।
४. भागवतों मे कदाचित तुलना नही करना चाहिये क्योंकि हर एक श्रीवैष्णव भगवान के तुल्य है |
५. जैसे एम्पेरुमान् के श्री चरणकमलों का अमृत (चरणामृत) स्वीकार करते हैं, उसी गौरव और प्रेम से आचार्य का श्री पाद तीर्थ लेना चाहिये ।
६. जब हम (आचार्य) श्री पाद तीर्थ को दूसरों को दे रहे हो, तब हमें गुरुपरम्परा की ओर वाक्य गुरुपरम्परा / द्व्य महा मंत्र का अनुसंधान करते हुए देनी चाहिये ।
अंत में वे उनके सारे शिष्यों को उनके सामने उपस्थित होने के लिए कहते हैं । उनसे क्षमा प्रार्थना माँगते हैं, उनसे श्री पाद तीर्थ ग्रहण करते है , उनको तादियाराधन करवाते है. और चरम तिरुमेनी (शरीर) छोड़कर परमपद को प्रस्थान करते हैं ।
सभी शिष्यगण दुःख के सागर में डूब जाते हैं और उनकी अंतिम यात्रा उत्सव मनाने की तैयारी आरम्भ करते हैं । जब एक श्री वैष्णव अपनी भौतिक काया को छोड़कर परमपद चले जाते हैं, तब उनका परमपद में अत्यंत गौरव और सम्मान के साथ स्वागत किया जाता हैं , इसे ध्यान में रखते हुए यह कार्य अत्यंत समारोह पूर्वक से मनाया जाता हैं । सभी चरम कैकर्य जैसे तिरुमंजनम्, श्री चूर्ण धारणा ,अलंकरण ,ब्रह्म रथ विस्तार से आळवन्दार् चरित्र में और अन्य आचार्या के चरित्र में भी समझाया गया हैं ।
अपने अंतिम समय के पहले , आलवन्दार स्वामी अपने प्रिय शिष्य पेरिया नम्बि ( महापूर्ण स्वामीजी) को इळयाळ्वार (रामानुज स्वामीजी) को लाने कांचीपुरम भेजते है । इळयाळ्वार् देवपेरुमाळ् की तिरुवाराधान में जल कैंकर्य के लिए सालै किनर (कुँए) पहुँचते हैं । उन्हें देखकर पेरिय नम्बी आळवन्दार् स्वामी द्वारा रचित स्तोत्र रत्न का पठन ऊँचे स्वर में करते हैं ताकि इळयाळ्वार को सुनाई दे । श्लोक सुनकर , श्लोक को अर्थ पूरित ग्रहण करके इळयाळ्वार् महापूर्ण स्वामीजी को , उनके लेखक के बारे में पूछते हैं । तब पेरिय नम्बि उन्हें आळवन्दार् की विशिष्टता/उत्कर्षता बता कर उन्हें श्री रंगम आमंत्रित करते हैं । उनका आमंत्रण स्वीकार करके इळयाळ्वार् देवापेरुमाळ् और तिरुकच्चिनम्बी की अनुमति लेकर श्री रंगम पहुँचते है । श्री रंगम पहुँचने पर , रास्ते में आळवन्दार् स्वामी की तिरुमेनि का अंतिम यात्रा का देखकर , पेरिय नम्बि दुखित हो रोते हुए, निचे गिर जाते हैं और इळयाळ्वार् भी यह सब देख दुखी हो जाते हैं। वहां उपस्थित लोगों से घटित घटना की जानकारी प्राप्त करते हैं ।
समाधी स्थल पर ,आळवन्दार् स्वामी के अंतिम कैंकर्य को आरम्भ किया जा रहा था, तब सब लोग ने उनके एक हाथ की ३ उंगलिया मुड़ी हुयी (बंद) देख अचंभित होते हैं। इळयाळ्वार् भी यह देख उपस्थित शिष्य और वैष्णव समूह से चर्चा कर इसका कारण जानने का प्रयास करते है , सबकी सुन इस निर्णय पर पहुँचते है की आलवन्दार स्वामी की ३ इच्छाएँ अपूर्ण रह गयी , वे इच्छाएँ इस प्रकार थी, :
१. व्यास और पराशर ॠशियों के प्रति सम्मान व्यक्त करना ।
२. नम्माल्वार् के प्रति अपना प्रेम बढ़ाना ।
३. विशिष्टा द्वैत सिद्धान्त के अनुसार व्यास के ब्रह्म सूत्र पर श्रीभाष्य की रचना करना (विश्लेष से विचार/चर्चा करना ) लिखना ।
तब इळयाळ्वार् प्रण लेते है की, आलवन्दार स्वामी के यह ३ इच्छाएँ वह पूर्ण करेंगे, इळयाळ्वार् के प्रण लेते ही आळवन्दार् स्वामी की तीनो उंगलिया सीधी हो जाती हैं । यह देखकर वहां एकत्रित सभी वैष्णव, और आलवन्दार स्वामी के शिष्य अचंभित हो खुश हो जाते हैं और इळयाळ्वार् की प्रशंसा करते हैं। आळवन्दार् स्वामी की परिपूर्ण दया, कृपा कटाक्ष और शक्ति उन पर प्रवाहित होती हैं। उन्हें श्री वैष्णव संप्रदाय दर्शन के उत्तराधिकारी पद पर प्रवर्तक/ निरवाहक चुन लिये जाते हैं । इळयाळ्वार् को आळवन्दार् स्वामी का दर्शन का सौभाग्य प्राप्त न होने का बहुत क्षोभ हुआ, वे दुखित मन से सब कैंकर्य पूर्ण करके , बिना पेरिय पेरुमाळ् के दर्शन किये कान्चिपूर् लौट जाते हैं । आळवन्दार् स्वामी के रचित ग्रन्थ उनके उभय वेदान्त के महा ज्ञानी होने का आभास करवाते है ।
१. चतुश्लोकि में केवल ४ श्लोकों में पेरिया पिराट्टि वैभव का मूल तत्व समझाते हैं ।
२. वास्तव मे स्तोत्ररत्न एक अनमोल रत्न है और इसी रत्न मे श्री आळवन्दार शरणागति की अवधारणा पूर्ण रूप से सरल श्लोकों मे प्रस्तुत करते है |
३. गीतार्थसंग्रह मे श्री आळवन्दार श्री भगवद्गीता का सारांश समझाते है|
४. आगम प्रमान्यम पहला ग्रन्थ हैं जिसमे श्री पाँच रात्र आगमं का महत्व और वैधता पर प्रकाश डाला गया हैं ।
आळवन्दार का तनियन्
यत् पदाम्भोरुहध्यान विध्वस्ताशेश कल्मषः
वस्तुतामुपयातोऽहम् यामुनेयम् नमामितम्
अगले अनुच्छेद मे पेरियनम्बि के वैभव की चर्चा करेंगे ।
अडियेन् इन्दुमति रामानुज दासी
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