पत्तन्गि परवस्तु पट्टरपिरान् जीयर

श्रीः
श्रीमते शठकोपाय नमः
श्रीमते रामानुजाय नमः
श्रीमद्वरवरमुनये नमः
श्री वानाचलमहामुनये नमः

तिरुनक्षत्र: कार्तिक पुनर्वसु

अवतार स्थल: कांचीपुरम (पेरिय तिरुमुड़ी अदैवू के अनुसार तिरुमला)

आचार्य: मणवाल मामुनिगल/ श्रीवरवरमुनि स्वामीजी

शिष्य: कोइलअप्पन (उनके पुर्वाश्रम के पुत्र),  परवस्तु अण्णन, परवस्तु अलगिय मणवाल जीयर, अण्णराय चक्रवर्ती, मेल्नाट्टू तोज्हप्पर नायनार, आदि

रचनाएं: अंतिमोपाय निष्ठा

स्थान जहाँ उन्होंने परमपद प्राप्त किया: तिरुमला

पत्तन्गि परवस्तु परिवार में मधुरकवि अय्यर (जो अरणपुरत्ताळ्वान के वंशज थे, ऐसा भी प्रचलित हैं कि वे नदुविल आळ्वान तिरुवंश से संबंधित हैं) के यहाँ गोविंद नाम से जन्मे, उन्हें पुर्वाश्रम में गोविन्द दासरप्पन, भट्टनाथ नाम से भी जाना जाता है। संन्यास ग्रहण करने के पश्चाद, उन्हें पट्टरपिरान् जीयर, भट्टनाथ मुनि आदि नाम से जाना जाता है। वे श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के अष्ट दिग्गजों (हमारे संप्रदाय के आठ मुख्य अनुयायी और अधिनायक) में से एक थे। पिल्लै लोकम जीयर जिन्होंने बहुत से महत्वपूर्ण लेखन कैंकर्य किये, वे उनके पौत्र थे।

श्रीवरवरमुनि स्वामीजी स्वयं अपने शिष्यों की सभा में गोविन्द दासरप्पन (पट्टरपिरान् जीयर) की प्रशंसा करते हैं। एक बार सभी लोगों की उपस्थिति में, श्री वरवरमुनि स्वामीजी कहते हैं कि मात्र श्रीगोविन्ददासरप्पन ही मधुरकवि आलवार के समान योग्य हैं, जिन्होंने कहा था देवूमरररियेन (मैं श्रीशठकोप स्वामीजी के अतिरिक्त अन्य किसी भगवान को नहीं जानता)। पट्टरपिरान् जीयर उसी प्रकार थे जैसे मधुरकवि आलवार के लिए शठकोप आलवार, दैववारियांडान के लिए आलवन्दार  और वडुक नम्बि के लिए रामानुज स्वामीजी । वे सदा श्री वरवरमुनि स्वामीजी के साथ रहा करते थे और उनसे कभी पृथक नहीं हुए, जिस प्रकार एम्बार/गोविन्दाचार्य स्वामीजी सदा श्री रामानुज स्वामीजी के साथ रहा करते थे। इस प्रकार उन्होंने शास्त्र के सभी सारतत्व प्रत्यक्ष श्री वरवरमुनि स्वामीजी से अध्यन किये और नित्य उनकी सेवा करते रहे।

अपने पुर्वाश्रम में 30 साल, उन्होंने श्रीवरवरमुनि स्वामीजी का शेष प्रसाद ही ग्रहण किया। वे “मोर मुन्नार अय्यर” (अत्यंत सम्मानीय जिन्होंने पहले दद्ध्योदन ग्रहण किया) के नाम से प्रसिद्ध हुए। पारंपरिक भोजन में पहले दाल-चावल, सब्जियां आदि पाई जाती है। अंत में दद्ध्योदन के साथ समाप्त किया जाता है। पट्टरपिरान् जीयर, प्रसाद उसी केले के पत्तल पर पाते थे, जिसमें श्री वरवरमुनि स्वामीजी ने प्रसाद ग्रहण किया था। श्री वरवरमुनि स्वामीजी दद्ध्योदन के साथ प्रसाद समाप्त करते थे और क्यूंकि गोविन्द दासरप्पन स्वाद को बदले बिना ही प्रसाद पाना चाहते थे (दद्ध्योदन से दाल तक), वे प्रतिदिन दद्ध्योदन से प्रारंभ करते थे। इस प्रकार वे “मोर मुन्नार अय्यर” के नाम से प्रसिद्ध हुए।

श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के शिष्यों ने श्रीवरवरमुनि स्वामीजी को “भट्टनाथ मुनिवर अभीष्ट दैवतं” कहकर संबोधित किया, अर्थात “वह जो पट्टरपिरान् जीयर के प्रिय स्वामी है”। वे लोग, मधुरकवि आलवार के समान ही, पट्टरपिरान् जीयर की श्री वरवरमुनि स्वामीजी के प्रति आचार्य निष्ठा की प्रशंसा करते थे।

श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के अंतिम दिनों में, अण्णराय चक्रवर्ती (जो तिरुमलै नल्लान चक्रवर्ती के वंशज थे) तिरुमला से श्रीरंगम पधारते हैं। पेरिय कोयिल के मंगलाशासन के पश्चाद, अपनी माता के सुझाव से, वे पेरिय जीयर (श्री वरवरमुनि स्वामीजी) के मठ में पहुंचकर आदर-सम्मान सहित उन्हें प्रणाम करते हैं। अपने कुटुंब सहित वहां जाने के लिए, वे पट्टरपिरान् जीयर के माध्यम से श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के समक्ष पहुँचते हैं। पेरिय जीयर (श्रीवरवरमुनि स्वामीजी) अपने दिव्य चरण कमल अण्णराय चक्रवर्ती के मस्तक पर रखते हैं और उन पर कृपा करते हैं। वे तिरुमला में अण्णराय चक्रवर्ती के कैंकर्य की प्रशंसा करते हैं और पट्टरपिरान् जीयर से अण्णराय चक्रवर्ती को अपने शिष्य के रूप में स्वीकार करने के लिए कहते हैं। श्री वरवरमुनि स्वामीजी कहते हैं जैसे “रामस्य दक्षिणो बाहू:” (लक्ष्मणजी श्रीरामजी के दायें हाथ थे), पट्टरपिरान् जीयर भी मेरे दाहिने हाथ हैं– इसलिए, वे ही आपकी पञ्च संस्कार विधि पूर्ण करके, आपको अपने शिष्य रूप में स्वीकार करके, आपको हमारे संप्रदाय में स्थापित करेंगे। अण्णराय चक्रवर्ती प्रसन्नता से आभार प्रकट करते हैं और पट्टरपिरान् जीयर को अपने आचार्य रूप में स्वीकार करते हैं।

अंततः, श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के परमपद प्रस्थान के पश्चाद, पट्टरपिरान् जीयर तिरुमला में निवास करने लगे और वहां बहुत जीवात्माओं को निर्मल किया। उन्होंने अंतिमोपाय निष्ठा नामक एक ग्रंथ की रचना की, जो हमारी आचार्य परंपरा की महिमा का गुणगान करती है और बताती है कि कैसे हमारे पूर्वाचार्य अपने आचार्यों पर पुर्णतः आश्रित थे। वे ग्रंथ के प्रारंभ में घोषणा करते हैं कि ग्रंथ में बताये गए सभी सिद्धांत/ द्रष्टांत स्वयं श्री वरवरमुनि स्वामीजी द्वारा समझाए गए हैं और वे उन बहुमूल्य निर्देशों के लेखन में मात्र कागज और कलम के समान हैं।

इस प्रकार, हमने परवस्तु पट्टरपिरान् जीयर के गौरवशाली जीवन की कुछ झलक देखी। वे महान विद्वान् थे और श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के बहुत प्रिय थे। हम सब उनके श्री चरण कमलो में प्रार्थना करते हैं कि हम दासों को भी उनकी अंश मात्र भागवत निष्ठा की प्राप्ति हो।

परवस्तु पट्टरपिरान् जीयर की तनियन:
रम्यजामातृयोगीन्द्र पादसेवैक धारकम्
भट्टनाथ मुनिं वन्दे वात्सल्यादी गुणार्नवं ।।

-अदियेन् भगवति रामानुजदासी

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