श्रीः
श्रीमते रामानुजाय नमः
श्रीमद् वरवरमुनये नमः
श्री वानाचलमहामुनये नमः
तिरुनक्षत्र: माघ मास, पुनर्वसु नक्षत्र
आवतार स्थल : तिरुवंजिक्कलम
आचार्यं: श्री विष्वक्सेनजी
रचना : मुकुंद माला , पेरुमाळ तिरुमोळि
परमपद प्रस्थान प्रदेश : मन्नार कोयिल (तिरुनेल्वेलि के पास)
श्रीकुलशेखराळ्वार् की महानता यह है कि क्षत्रिय कुल (जो स्वाभाविक हितकर अहँकार के लिए जाना जाता हैं) में पैदा होने के बाद भी वे एम्पेरुमान्/ भगवान और उनके भक्तों के प्रति अत्यंत विनम्र थे। पेरुमाळ (श्री राम) के प्रति इनकी भक्ति और लगाव के कारण इन्हें “कुलशेखर पेरुमाळ” नाम से भी जाना जाता है। अपनी पेरुमाळ तिरुमोळि के प्रथम पद (ईरुळिय चुडर् मणिगळ) में पेरिय पेरुमाळ का मँगलाशासन करने के पश्चात, दूसरे पद (तेट्टरुम तिरळ तेनिनै) में श्रीवैष्णवों का कीर्तन करते है। वे श्रीवैष्णवों के प्रति अपने प्रेम के लिए भी बहुत प्रसिद्ध है, जिसे हम आगे देखेंगे।
शेषत्व ही जीवात्मा का सच्चा स्वरूप है, आळ्वार ने इस विषय में अपने पेरुमाळ तिरुमोळि के अंतिम पासुर (१०.७) “तिल्लैनगर् चित्तिरकूडम् तन्नुळ् अर्चमर्ण्तान् अडिचूडुम् अर्चै अल्लाल् अर्चाग एन्ऩेन् मत्तर्चु दाने” में बताया है – मैं चित्तिरकूडम के महाराजा (गोविन्दराजन एम्पेरुमान्) के श्री कमल चरणों को पकड़े रहने के अलावा किसी अन्य विषय को शाही नहीं मानता हुँ। इन शब्दों के द्वारा, देवतान्तर/ विषयान्तर से जीवात्मा के सम्बन्ध की सोच मात्र का आळ्वार जड़ से उन्मूलन करते हैं।
वे बताते है कि जीवात्मा का सच्चा स्वरूप “अच्चिद्वद् पारतंत्र्य” है। अपने तिरुवेंकट पद (४.९) में इस तरह से समझाते है-
चेडियाय वल्विनैगळ् तीर्क्कुम् तिरुमाले
नेडियाने वेन्ङटवा ! निन् कोयिलिन् वासल्
अडियारुम् वानवरुम् अरम्बैयरुम् किडण्तियन्ङ्गुम्
पडियाय्क् किडण्तु उन् पवळ वाय्क् कान्ण्बेने
हे श्रीवेंकटेशा ! आपने मेरे प्रबल कर्मों को नष्ट किया। मैं आपके सन्निधि के द्वार के पत्थर की सीढ़ी बनकर रहना चाहता हुँ, जहाँ आपके महान भक्त और लौकिक कामना की पूर्ती हेतु देवजन और उनके आभारी लोग आपके दर्शन पाने के लिए तड़प रहे होंगे।
पेरिय वाच्चान पिळ्ळै के अनुसार जीवात्मा को निम्न प्रकार होना चाहिए-
1. (पड़ियै कीडन्तु) अचित (असंवेद्य) – के समान रहना चाहिए अर्थात जीवात्मा को सम्पूर्ण रूप से भगवान के आश्रित रहना चाहिए। जिस प्रकार बिना किसी स्वार्थ के चन्दन और कुमकुम केवल अपने उपभोग करने वाले के आनंद के लिए ही होते है।
2. (उन पवळवाय काँबेने ) चित (संवेद्य) – चेतन इस संदर्भ में कि हमें ज्ञात रहना चाहिए कि भगवान हमारी सेवा स्वीकार करके आनंदित होते है। यदि हम इसे स्वीकार न करके कोई प्रतिक्रिया नहीं करेंगे, तब हम अचित वस्तु से कुछ भी भिन्न नहीं होंगे।
इस सिद्धान्त को अचितवद् पारतंत्रयं कहते है। जिसका मतलब है जीवात्मा परिपूर्ण रूप से एम्पेरुमान् के अधीन है, परंतु फिर भी उन्हें आनंदपूर्वक प्रतिक्रिया देते है – यही श्री वैष्णव सिद्धान्त का अत्युत्तम तत्व हैं ।
हमने “श्री कुळशेखराळ्वार का अर्चावतारानुभव” में देखा हैं की कैसे श्री वरवरमुनि स्वामीजी/ मामुनिगळ, अर्चावतार अनुभव कालक्षेप में कुलशेखराळवार का कीर्तन करते है ।
नायनार अपनी प्रसिद्ध रचना आचार्य ह्रदय में अनेक चूर्णिकाओं के द्वारा समझाते हैं की भक्तों का उनके जन्म के आधार पर भेद नहीं करना चाहिए और वे नम्माळ्वार/श्री शठकोप स्वामीजी इत्यादि महानुभावों की महानता की स्थापना करते हैं। उस अनुभाग में भगवत् कैंकर्य करने के लिए अनुकूल जन्म के बारे में विचार – विमर्श करते समय नायनार उदाहरण के साथ बताते हैं कैसे महान व्यक्ति निम्न वर्ग में जन्म लेने के लिए आकांक्षित थे क्यूँकि यह वर्ग कैंकर्य करने के लिए सुविधाजनक होता है। आईये देखे ८७ चूर्णिका का सार और कैसे यह कुलशेखर आल्वार से सम्बंधित हैं ।
अण्णैय ऊर पुनैय अडियुम् पोडियुम् पडप् पर्वत भवणन्ङ्गळिले एतेनुमाग जणिक्कप् पेऱुगिऱ तिर्यक् स्तावर जन्मन्ङ्गळै पेरुमक्कळुम् पेरियोरुम् परिग्रहित्तुप् प्रार्त्तिप्पर्गळ्
अनन्त, गरुड़, इत्यादि नित्यसूरी भगवान की शय्या (आदिशेष), पक्षी (गरुडाल्वार) इत्यादि जन्म लेने की अभिलाषा करते है। नम्माल्वार दर्शाते हैं की एम्पेरुमान को तिरुतुळाय (तुलसी) अत्यंत प्रिय है और इस कारण एम्पेरुमान सभी स्थानों पर तिरुतुळाय धारण करते हैं (सर, कन्धों, छाती इत्यादि पर)। पराशर, व्यास, शुक आदि जैसे महाऋषि वृन्दावन की धूल बनकर पैदा होने के इच्छुक थे ताकि कृष्ण और गोपियों के श्रीचरण कमलों का स्पर्श प्राप्त कर सके। कुलशेखर आल्वार तिरुवेंकटाचल पर्वत पर कुछ भी होने का मनोरथ करते है। आळवन्दार श्रीवैष्णव के घरों में एक कीड़े की तरह पैदा होने की इच्छुक थे। आईये कुलशेखर आल्वार की मनोरथ को विस्तार से मामुनिगळ के इस चूर्णिका की व्याख्यान के विवरण में देखते है।
पेरुमाळ तिरुमोळि ४ पधिग् में, आळ्वार तिरुवेंकटाचल पर्वत से किसी भी तरह का संबंध रखने के लिए इच्छुक थे ताकि वह उस प्रदेश से नित्य निकट रह सके ।
आळ्वार कुछ इस प्रकार से मनोरथ करते हैं :
- पर्वत के तालाब में पक्षी बनने का
- तालाब में मछली बनना, क्यूँकि पक्षी तो उड़ सकता है
- एम्पेरुमान की सेवा में सोने की पात्र पकड़ने वाले एक सेवक होने के लिए मनोरथ करते है क्यूँकि मछली तैर कर तालाब से दूर जा सकती है।
- एक वृक्ष का फूल क्यूँकि सोने की पात्र पकड़ने से मन में अहँकार उत्पन्न हो सकता हैं और अतः उन्हें दूर कर देगा।
- एक निरुपयोगी वृक्ष – क्यूँकि तोड़े और उपयोग किये फूलों को फेक दिया जाता है।
- तिरुवेंकटाचल पर्वत पर एक नदी – क्यूँकि निरुपयोगी पेड़ को एक दिन उखाड़ सकते है।
- मंदिर सन्निधि के मार्ग की सीढ़ी होने के लिए मनोरथ करते है क्यूँकि नदी कभी भी सूख सकती है।
- सन्निधि के सामने की चौखट होने के लिए क्यूँकि सीढ़ियों का रास्ता बदला जा सकता है (इसी कारण चौखट को कुलशेखर प्पडि कहते है)।
जो भी तिरुवेंकटाचल पर्वत पर निरन्तर रह सके – पेरियवाच्चान पिळ्ळै अपने व्याख्यान में विवरण देते हैं की आळ्वार हमेशा के लिए पर्वत से जुड़ जाने के लिए ख़ुद तिरुवेंकटमुडैयन बनने के लिए भी पीछे नहीं जायेंगे और वे भट्टर के कथन के विषय में भी बताते है यहाँ भट्टर कहते है ” मैं यहाँ रह रहा हुँ, इस विषय की स्मृति की मुझे आवश्यकता नहीं है, न ही तिरूवेंकटमुडैयान को यह जानने की आवश्यकता है और किसी को भी मेरी स्तुति करने की आवश्यकता नहीं है कि मैं यहाँ हूँ। सिर्फ यहाँ किसी भी रूप में नित्य वास करने मात्र से ही मैं ख़ुश हुँ “।
कुलशेखराळ्वार की महानता यह हैं की वह बिना कुछ व्यक्तिगत लाभ के भगवत् / भागवत् कैङ्कर्य करने को तरस रहे थे। यह ध्यान में रखते हुए, आईये उनका चरित्र देखे:-
गरुड़ वाहन पण्डित द्वारा रचित दिव्य सूरी चरित्र के अनुसार, कोळ्ळिनगर (तिरुवंजिक्कळम) के राज्य में, क्षत्रिय वंश में, श्री कौस्तुभ अंश (हालांकि आळ्वार सँसार से भगवान द्वारा चुने गए थे और अनुग्रह पात्र थे) से इनका जन्म हुआ। इन्हें कोळ्ळि कावलन्, कोळियर कोन, कूडल नायकन इत्यादि नामों से भी जाना जाता है।
जैसे तनियन में विवरण दिया गया हैं “मात्तलरै, वीरन्ङ्केडुत्त चेन्ङ्कोल् कोल्लि कावलन् विल्लवर्कोन्, चेरन् कुलशेकरन् मुडिवेण्तर् शिकामणी” मतलब अपने शत्रु को नाश करने वाले और चेरा राज्य के राजा, अनेक रथ, घोडे और हाथियों की युद्ध सेना के महा बल के साथ अपने शत्रुओं को भगा देने वाले, वे महान शक्तिशाली थे। शास्त्रानुसार धर्म पालन करते थे और यह सुनिश्चित करते थे की बलवान कमज़ोर को कष्ट नहीं दे और श्री राम की तरह ही, उदारचित्त और विनम्रता पूर्वक राज्य परिपालन करते थे।
महान राजा होने के कारण , वे स्वयं को स्वतन्त्र और राज्य का नियंत्रक मानते थे। परमपद और सँसार के नियंत्रक भगवान ने उन्हें अपनी निर्हेतुक दया से शुद्ध दिव्य ज्ञान प्रदान किया, उनके रजो /तमो गुणों को हटा करके उन्हें परिपूर्ण सत्व गुण में स्थित करके, अपना दिव्य स्वरूप, रूप, गुण, विभूति ( अपना ऐश्वर्य / नियंतृत्व) और अपनी लीलाओं का विवरण दिया। यह विषय समझने के बाद, वे संसारी, जो भगवत् विषय में अरुचि और अपने शरीर के भोगों में निमग्न रहनेवालों के बीच रहने में असहज महसूस करने लगे। जैसे नम्माळ्वार घोषित करते है कि अधिक भौतिक सम्पत्ति एक जलते हुई आग की तरह हैं, जो अपने मालिक को भौतिक विषयों में लिप्त करके अंत में उसे जला देती है। यद्यपि कुलशेखर आळ्वार को अपने राज्यशासन में कोई रूचि नहीं थी और वे स्वयं को विषयान्तर से दूर रखते थे जैसे श्री विभीषणाळ्वान ने अपना सर्वस्व छोड़ के श्री राम की शरण ली थी ।
श्री रङ्गम् , श्री रङ्गनाथजी और श्री रङ्गनायकीजी के सेवक जो भौतिक विषयों से असंलग्न और अपना सारा समय श्री रङ्गनाथ की कीर्तन में बिताते हैं उनके प्रति अत्यंत प्रेम बड़ा चुके थे । ऐसे श्री वैष्णव जो साधु (वैष्णव अग्रेस: – श्री वैष्णव के नेता) कहलाते हैं और जिन्हें “अण्णियरन्ङ्गन् तिरुमुत्ततु अडियार्” कहकर पहचाना जाता हैं मतलब जो भक्त अपना सारा जीवन श्री रङ्गम् मन्दिर में बिताते हैं उनके बीचों बीच रहने की चेष्ठा दिखा रहे थे । श्री रङ्ग यात्र और श्री रङ्ग जाने की आशा ही एक मनुष्य को परमपद प्राप्त करा सकता हैं और श्री रङ्ग में नित्य निवास करे तब उसके बारे में क्या कहे ऐसे प्रति दिन श्री रङ्ग जाने की सोच में बिता रहे थे ।
जहाँ की स्वामि पुष्करणी को गँगा, यमुना से भी पवित्र मानकर कीर्तन किया जाता हैं ऐसे तिरुवेंकटम के प्रति भी आळ्वार बहुत लगाव बड़ा लेते हैं । जैसे आण्डाळ् कहते हैं “वेन्ङ्कटत्तैप् पतियाग वाळ्वीर्गाळ्” मतलब हमें तिरुवेंकटम में जीवन बिताना चाहिए और नित्य निवास बनाना चाहिए जहाँ महात्मा और ऋषि नित्य वास कर रहे हैं , इन्हें भी ऐसी ही मनोरथ थी । हम ने पहले देखा की कैसे आळ्वार एक पक्षी , एक पौधा और इस दिव्य देश में एक पत्थर बनने के लिए भी तैयार थे । इसके अतिरिक्त आळ्वार कई दिव्य देशों में रहके , उधर के अर्चावतार के एम्पेरुमान और उनके भक्तों की सेवा करने के लिए इछुक थे ।
कई पुराण और इतिहास को विश्लेषण करके , एक महान संस्कृत श्लोक ग्रन्थ मुकुन्द माला नाम से अनुग्रह करते हैं । श्री मन्नारायण की वैभवता अगले श्लोक में विवरण करते हैं ।
वेद वेद्ये परे पुम्सि जाते दशरतात्मजे
वेदः प्राचेतसादासीत् साक्शात् रामायणत्मना
श्री मन्नारायण जिन्हें वेद के द्वारा समझ सकते हैं श्री राम के रूप में रूढि हुए । वेद स्वयं वाल्मीकिजी से श्री रामायण के रूप में प्रकट हुआ हैं ।
श्री रामायण सुनना और चर्चा करना अपने दैनिक दिनचर्य का भाग बना लिया था । श्री रामायण की कथा में अपने आप को भुलाकर निमग्न हो जाते थे । एक बार उपन्यास में कर/दूषण के नेतृत्व में १४००० राक्षस श्री राम जिन्होंने गुफा में इळया पेरुमाळ(लक्ष्मण) के भरोसे सीता देवी को छोड़ दिया उनके प्रति युद्ध करने की तैयारी करने का दृश्य विवरण दिया जा रहा था । यह दृश्य में श्री राम अकेले १४००० रक्षोसों का सामना करना था और यह देखकर ऋषि लोग डर जाते है । आळ्वार भावुक हो जाते हैं और अपनी सेना को तैयारकर श्री राम की सहायता करने के लिए युद्ध भूमि पहुँचने का आदेश करते हैं । यह देखकर उनके कुछ मंत्री , थोड़े लोगों का इंतज़ाम करते हैं जो सामने की दिशा में आकर बताते हैं की श्री राम ने युद्ध में विजय प्राप्त किया हैं और सीता देवी उनकी देखबाल कर रही हैं और उनके आनेकी जरूरत नहीं हैं । आळ्वार संतुष्ट होकर अपने राज्य को लौट जाते हैं ।
इनके मंत्री गण सोचने लगे की श्री वैष्णव से इनके सम्बन्धों के कारण आळ्वार का बर्ताव बदल गया हैं । निश्चित करते हैं की श्री वैष्णव दूर रहे और इसके लिए एक योजना बनाते हैं । वह एक वज्र माला को आळ्वार के तिरुवराधन के (पूजा) कमरे से चुरा कर घोषित करते हैं की उनके करीबी श्री वैष्णव ने उसे चुराया होगा । यह सुनने के बाद आळ्वार एक ज़हरीले नाग से भरा घड़े को लाने के लिए आदेश करते हैं और आने के बाद , अपना हाथ घड़े में रखकर ऐलान करते हैं “श्री वैष्णव ऐसे कार्यों में जुटते नहीं हैं ” – ज़हरीला सांप उनकी ईमानदारी के लिए उन्हें काँटता नहीं और यह देखकर मंत्रियों को शर्म आजाति हैं और माला को वापस देकर आळ्वार और श्री वैष्णव से क्षमा प्रार्थना करते हैं ।
सौनक सँहिता में बताया जाता हैं की “एक प्रपन्न के लिए भगवान का कीर्तन नहीं करने वालों के बीच में रहने से बेहतर आग के गोले में रहना अच्छा लगता हैं ” और ठीक इसी तरह आळ्वार संसारि के बीचों बीच रहने में महसूस कर रहे थे । अपने सुपुत्र को राजा बनाकर राज्य के सभी जिम्मेदारियाँ सौंप देते हैं और ऐलान करते हैं “आनात शेल्वत्तु अरम्बैयर्गळ् तर्चूळ वानाळुम् शेल्वमुम् मन्ऩरचुम् यान् वेण्डेन्” मतलब इन्हें कामकरने वाले , मनोरंजन करने वालों , भोग भोगने वालों के साथ राज्य करने में दिलचस्पी नहीं हैं । अपने श्री वैष्णव साथियों के साथ श्री रङ्गम निकल जाते हैं और श्री रङ्गनाथ जो सोने के थाली (आदिशेष पे सोते हुए ) पे एक वज्र की तरह हैं और हर समय सब के कल्याण के बारे में सोचते हैं उनका मँगलशासन करते हैं । हर पल भगवद्-भागवत्नाम संकीर्तन करने लगे । उनके मनोभावनावों के प्रवाह का साक्षात निरूपण उनका पेरुमाळ तिरुमोळि है । इसकी रचना करके सभी को अपना अनुग्रह प्रसाद किया । थोड़े समय के बाद , सँसार छोड़ के , परमपदनाथ की सेवा करने हेतु परम पद को प्रस्थान हुए ।
तनियन्
घुष्यते यस्य नगरे रंङ्गयात्रा दिने दिने |
तमहम् सिरसा वन्दे राजानम् कुलशेकरम् ||
अडियेन इन्दुमति रामानुज दासि
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