श्री-गुरुपरम्परा-उपक्रमणि – 1

श्रीः
श्रीमते शठकोपाय नमः
श्रीमते रामानुजाय नमः
श्रीमद् वरवरमुनये नमः
श्री वानाचलमहामुनये नमः

लक्ष्मीनाथ समारंभाम् नाथयामुन मध्यमाम् |
अस्मदाचार्य पर्यंताम् वन्दे गुरुपरंपराम् ||

भगवान श्रीमन्नारायण (श्रिय:पति) से प्रवर्तित (प्रारंभ) दिव्य परंपरा, जिसके मध्य में श्रीनाथमुनि स्वामीजी और श्रीयामुनाचार्य स्वामीजी है, से लेकर मेरे आचार्य पर्यंत, इस वैभवशाली गौरवशाली श्रीगुरुपरंपरा का मैं वंदन करता हूँ।” यह दिव्य श्लोक श्रीकूरत्ताळ्वान/ श्रीकुरेश स्वामीजी ने हमारी गुरुपरम्परा को गौरवान्वित करते हुये, संप्रदाय की महिमा मंडित करते हुए रचित किया है।

कुरेश स्वामीजी के अनुसार, “अस्मदाचार्य” का तात्पर्य भगवद् श्रीरामानुजाचार्य स्वामीजी से है, क्योंकि श्रीरामानुजाचार्य स्वामीजी, श्रीकुरेश स्वामीजी के आचार्य थे। किंतु साधारणतः पठन में पाठक के निज आचार्य का बोध होता है ।

श्री वरवरमुनि स्वामीजी/ मणवाळ मामुनि” अपनी “उपदेश-रत्नमाला”  रचना में बताते है कि नम्पेरुमाळ/ श्री रंगनाथ भगवान ने हमारे सत्-सम्प्रदाय को “एम्पेरुमानार् दर्शिनम्” के रूप में दर्शाया है। वह श्रीरामानुज स्वामीजी ही है, जिन्होंने अपने जीवन काल में इस सनातन-धर्म  के इस सत्-सम्प्रदाय को पुनः प्रतिष्ठित किये । उन्होंने अपने पूर्वाचार्यों और आळ्वार संतो (जैसे – श्रीनाथमुनि स्वामीजी, श्री यामुनाचार्य स्वामीजी/आळवन्दार, आळ्वारों) द्वारा प्रदत्त श्री-सूक्तियों का संदेश हम सभी के हितार्थ अत्यंत सरल रूप, सरल भाव  में प्रस्तुत किये है।

गुरु और आचार्य समानार्थक (पर्याय) शब्द है। गुरु अर्थात जो हमारे ज्ञान के अन्धकार को दूर करे। आचार्य अर्थात जिन्होंने शास्त्रों का अध्ययन किया है, और जो स्वयं अपने जीवन में उन शास्त्रों का अनुसरण करते है और दूसरों को (अपने शिष्यों को) अपने उत्कृष्ठ आचरण  से प्रेरित करते है। गुरुपरम्परा अर्थात अखन्डित आचार्य वंशावली। श्री-सम्प्रदाय की गुरू परम्परा, भगवान् श्रीमन्नारायण से प्रारंभ होती है जैसा की गुरु परम्परा के श्लोक में प्रस्तुत है। भगवान् श्रीमन्नारायण अपनी अकारण (निर्हेतुक) कृपा से, इस भौतिक जगत से बध्द जीवात्मा (अर्थात जीवों) का उद्धार करते है, जीवात्मा को शुध्द बुध्दि, और चिरस्थायि सुखदायक आनन्दमय जीवन (यानि परमपद में भगवद्-कैंकर्य) प्रदान करने की ज़िम्मेदारी स्वयं लेते है।

अतः भगवान श्रीमन्नारायण हमारे सत्सम्प्रदाय “श्री संप्रदाय” के प्रवर्तक आचार्य हुये , और शास्त्रों का अनमोल अर्थ बतलाया। शास्त्र कहते है – “तत्व ज्ञानंमोक्ष लाभः” अर्थात सही ज्ञान से मोक्ष की प्राप्ति होती है। जो भी सच्चा/ शुद्ध ज्ञान आज हमारे पास उपलब्ध है, वह हमें इसी अखन्डित आचार्य परम्परा द्वारा प्राप्त हुआ है। अतः निश्चित ही हम को अपने आचार्यों के बारे में जानने,  उनके जीवन की चर्या की चर्चा करें, उनके सदुपदेशों का अनुसरण कर अपने जीवन में उनका अनुसरण करें।

अतः हमारी दिव्य आचार्य परम्परा, जो 6000 पदी गुरुपरम्पराप्रभावम् (पिन्बाळ्गिय पेरुमाळ जीयर

द्वारा रचित), यतीन्द्रप्रणवप्रभावं और अन्य कई सारे ग्रन्थों में वर्णित है, वह दास द्वारा  अभिमान रहित प्रयासों से आप सभी भगवद्बन्धुओं के सम्मुख प्रस्तुत है।

अडियेन सेतलूर सीरिय श्रीहर्ष केशव कार्तीक रामानुजदासन्
अडियेन वैजयन्त्याण्डाळ् रामानुजदासि

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3 thoughts on “श्री-गुरुपरम्परा-उपक्रमणि – 1”

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