एम्पेरुमानार

 श्रीः

श्रीमते रामानुजाय नमः

श्रीमद् वरवरमुनये नमः

श्री वानाचलमहामुनये नमः

हमारे श्री सम्प्रदाय जो भगवान श्रीमन्नारायण से प्रतिपादित है , जिसकी प्रथमाचार्य स्वयं माँ लक्ष्मीजी है , इस सम्प्रदाय की ओरणवली गुरु परम्परा,  में आलवन्दार मुनि के बाद शेष अवतार भगवत श्री रामानुजाचार्य (एम्पेरुमानार)  ९ वि सीढ़ी पर आते है , दास की यह काबिलियत  नहीं की इन आचार्य के बारे में लिख सके. फिर भी दास अपनी अल्प बुद्धि ज्ञान से भगवत रामानुज स्वामीजी की जीवनी पर कुछ प्रस्तुति दे रहा है ।

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तिरुनक्षत्र : दक्षिणात्य चैत्र(मेष) मास का आर्द्रा  नक्षत्र

अवतार स्थल : श्री पेरुम्बुदुर ( श्री भूतपुरी)

आचार्य : पेरियनम्बि ( श्री महापूर्ण स्वामीजी)

शिष्यगण : कूरत्ताळ्वार (श्री कुरेश स्वामीजी) , मुदलिअण्डाण(श्री दाशरथि स्वामीजी) , एम्बार  (श्री गोविंदाचार्य स्वामीजी) , अरुळळपेरुमाळ एम्पेरुमानार (श्री देवराज स्वामीजी) , अनन्ताळ्वान , चौहत्तर सिंहासनाधिपति और असंख्य शिष्य । कहते है की स्वामीजी के बारह हज़ार श्रीवैष्णव , सात सौ सन्यासी / जीयर  , और अनेक कुलों और जातियों के अन्तर्गत कई सारे शिष्य हुए ।

परपदम प्राप्ति स्थल : तिरुवरंगम (श्रीरंगम)

मुख्य ग्रंथरचना की सूचि : स्वामीजी ने नौ (९) ग्रंथो की रचना की थी जिन्हे सम्प्रदाय  में नवरत्न के मानिंद माना गया है, स्वामीजी द्वारा रचित ग्रन्थ के नाम यह है १) श्रीभाष्य (श्रीवेदव्यास के ब्रह्मसूत्रो पर टिप्पणि ) , २) श्रीगीताभाष्य (श्रीमद्भगवद्गीता पर टिप्पणि ) , ३) वेदार्थसंग्रहम , ४) वेदान्तदीपम , ५) वेदान्तसारम , ६) शरणागतिगद्यम , ७) श्रीरंगगद्यम , ८) श्रीवैकुण्ठगद्यम , ९) नित्यग्रंथम।

शरणागतिगद्यम , श्रीरंगगद्यम और  श्रीवैकुण्ठगद्यम इन तीनो को सम्मिलीत रूप में गद्यत्रय के नाम से भी जानते है ।

स्वयं श्रीअनन्तशेष के अवतार, भगवत रामानुज स्वामीजी के पिता श्री केशवदीक्षितार और माता श्रीमती कान्तिमति देवी थी । भगवत रामानुज स्वामीजी का जन्म दक्षिणात्य चैत्र मास के आर्द्रा नक्षत्र के दिन वर्तमान तमिलनाडु के श्रीपेरुम्बुदुर नामक गांव में हुआ।

भगवत रामानुज स्वामीजी को,  स्वयं भगवान रंगनाथजी, भगवान वरदराजजी , माँ सरस्वती देवी ,और उनके आचार्यों ने अलग अलग नाम देकर गौरवान्वित किये  है ।

उनमे कुछ नाम इस प्रकार है,

१) इळयाळ्वार – यह नाम रामानुज स्वामीजी के मामाजी,  पेरिय तिरुमलै नम्बि (श्रीशैलपूर्ण स्वामीजी) ने उनके नामकरण के दिन दिये थे ।

२) श्रीरामानुज – उनके आचार्य श्रीपेरियनम्बि(श्री महापूर्ण स्वामीजी) ने दीक्षा के समय दिये थे।

३) यतिराज और रामानुज मुनि – श्री देवपेरुमाळ (भगवान वरदराज, कांची) ने उनके सन्यास दीक्षा के समय दिये थे।

४) उडयवर – नम्पेरुमाळ (भगवान रंगनाथ, श्रीरंगम ) ने दिया था।

५) लक्ष्मण मुनि – तिरुवरंगपेरुमाळ अरयर(श्री वाररंगाचार्य स्वामीजी) ने दिया था।

६) एम्पेरुमानार – जब श्रीरामानुजाचार्य ने गुरु से प्राप्त मन्त्र वहां उपस्थित सारे लोगों को  बिना पूछे ही बतला दिया था तब श्री तिरुक्कोष्टियूर नम्बि(श्री गोष्टिपुर्ण स्वामीजी) ने यह नाम दिया था ।

७) शठगोपनपोन्नडि (शठकोप स्वामीजी की पादुका) – तिरुमलय अण्डाण(श्री मालाकार स्वामीजी) ने दिया था ।

८) कोयिल अन्नन – भगवान सुन्दरबाहु ( तिरुमालिरुन्सोलै) को १०० घड़े अक्कर  वडिसल और १०० घड़े मक्खन का भोग लगाकर जब श्रीरामानुजाचार्य स्वामीजी ने माँ गोदाम्बाजी का प्रण पुरा करके, श्रीविल्लिपुत्तूर दर्शन के लिए आये तब माँ गोदाम्बजी ने दिया था।

९) श्रीभाष्यकार – कश्मीर में शारदा पीठ में श्रीभाष्य पर रामानुज स्वामीजी के विवेचन पर प्रसन्न हो सरस्वती देवी ने प्रदान किया था।

१०) भूतपूरीश्वर – श्रीपेरुम्पुदुर  के श्रीआदिकेशव भगवान ने दिया था।

११) देषिकेन्द्रार – श्रीतिरुवेण्कटमुदयन(श्री वेंकटेश भगवान) ने यह नाम प्रदान किये थे ।

उनके जीवन का संक्षिप्त वर्णन :- 

  • श्रीपेरूंबुदूर मैं श्री तिरुवल्लिक्केणि के श्री पार्थसारथी भगवान के अंशावतार के रूप मैं जन्म हुआ ।
  • भगवत रामानुज स्वामीजी का विवाह १६ वर्ष की आयु में रक्षकाम्बल (तन्जम्माळ) के साथ हुआ ।
  • कांचीपुरम आकर अद्वैतवादी आचार्य यादवप्रकाश के पास  सामान्य शास्त्र और पूर्वपक्ष की शिक्षा प्राप्त किये।
  • श्रीयादवप्रकाश जब शास्त्रों में वर्णित श्लोकों का गलत अर्थ / तात्पर्य बतलाते तब श्री रामानुज स्वामीजी अन्य उदाहरण देकर श्लोकों का सही अर्थ बतलाते हुये श्रीयादवप्रकाश को सही तात्पर्य समझाने की कोशिश करते थे ।
  • यादवप्रकाश भगवत रामानुज स्वामीजी से  छुटकारा पाने अपने अन्य शिष्यों के साथ विचार विमर्श कर , रामानुज स्वामीजी को काशी यात्रा पर ले जाकर वही समाप्त कर देने की योजना बना कर, काशी यात्रा के लिए जाते है।
  • यादवप्रकाश की इस योजना का , भगवत रामानुज स्वामीजी के मौसेरे भाई गोविंदाचार्य (एम्बार) को पता चल जाता है । गोविंदाचार्य श्री रामानुज स्वामीजी को यादवप्रकाश की इस योजना से अवगत कराते हुए कांचीपुरम भेज देते हैं परंतु श्री रामानुज स्वामीजी घने जंगल में राह भटक जाते है । तब कांचीपुरम के, श्री वरदराज भगवान और पेरुन्देवि तायर शिकारी युगल के भेष में आकर उन्हें कांचिपुरम पहुंचा देते है ।
  • काशी से वापसी के बाद ,अपनी माताश्री की आज्ञा अनुसार तिरुक्काच्चिनम्बि (श्री काँचीपूर्ण स्वामीजी) के नेतृत्व मे श्री वरदराज भगवान के कैंकर्य में सेवारत हो गये।
  • श्री रामानुज स्वामीजी पेरियनम्बि ( महापूर्ण स्वामीजी) के साथ आळवन्दार स्वामीजी से मिलने श्रीरंगम जाते है , परंतु उन्हें आळवन्दार स्वामीजी की दिव्य चरम तिरुमेनि के ही दार्शन होते है और वे श्री आळवन्दार स्वामीजी के ३ इच्छाओं को पूर्ण करने का प्रण करते हैं ।
  • श्री रामानुज स्वामीजी श्री कांचीपूर्ण स्वामीजी को अपना आचार्य मानते हैं और उन्हे पॅंच संस्कार करने की प्रार्थना करते हैं परंतु श्री कांचीपूर्ण स्वामीजी शास्त्रों से प्रमाण बता कर मना कर देते हैं । श्री रामानुज स्वामीजी श्री कांचीपूर्ण स्वामीजी की शेष(शीतल) प्रसादी पाना चाहते हैं परंतु उनकी यह इच्छा पूर्ण नहीं होती ।
  • श्री रामानुज स्वामीजी (श्री इळयाळ्वार) की दुविधा देखकर श्री वरदराज भगवान श्री कांचीपूर्ण स्वामीजी द्वारा उन्हे छह उपदेश देते  है ।
  • भगवान वरदराज ( देवपेरुमाळ ) की आज्ञा से ,श्री इळयाळ्वार श्री महापूर्ण स्वामीजी से मिलने के लिए श्रीरंगम रवाना होते है,  और इसी समय  श्री महापूर्ण स्वामीजी श्री इळयाळ्वार से मिलने के लिये सह परिवार श्रीरंगम से कांचीपुरम  के लिये रवाना हुए । इन  दोनो का मिलन मधुरान्तकम मे होता है ,  श्री पेरियनम्बि(श्री महापूर्ण स्वामीजी),  इळयाळ्वार को पंचसंस्कार दीक्षा देकर उनका दास्य नाम श्रीरामानुज प्रदान करते हैं।
  • महापूर्ण स्वामीजी कांचीपुरम में कुछ समय के लिए रामानुज स्वामीजी के तिरुमाली (घर) मे रहकर उन्हें सम्प्रदाय शास्त्र का सार और रहस्य की शिक्षा देकर श्रीरंगम के लिए प्रस्थान करते है।
  • उसके पश्चात श्री रामानुज स्वामीजी सन्यासाश्रम  स्वयं कांची के श्री वरदराज भगवान के हाथो स्वीकार करते है।
  • श्री कूरत्ताळ्वान (श्री कुरेश स्वामीजी) और आण्डान (श्री दाशरथि स्वामीजी) उनके शिष्य हुए ।
  • यादवप्रकाश भी श्रीरामानुजाचार्य के शिष्य बन जाते है , यादवप्रकाशजी को  रामानुज स्वामीजी श्रीगोविन्द जीयर दास्यनाम प्रदान करते है । उन्होने बाद मे ” श्रीयतिधर्मसमुच्चयम् ” नामक ग्रन्थ की रचना की जो , श्रीवैष्णव सन्यासियों के लिये अत्यंत उपयोगी मार्गदर्शिका  है ।
  • श्रीपेरियपेरुमाळ ( श्री रंगनाथ भगवान ),  तिरुवरंग पेरुमाळ अरयर (श्री वररन्गाचार्य स्वामीजी) को देव पेरुमाळ से आज्ञा लेकर रामानुज स्वामीजी को श्रीरंगम लाने के लिये कांची भेजते है । श्री रामानुज स्वामीजी श्रीरंगवासी होकर,  पेरिया पेरुमाळ के कैंकर्य में सम्मिलित हो जाते है  ।
  • श्रीरामानुजाचार्य अपने मौसेरे  भाई (श्री गोविन्द भट्टर) को वापस श्रीवैष्णवधर्म मे लाने की जिम्मेदारी   पेरिय तिरुमलैनम्बि(श्री शैलपुर्ण स्वामीजी)  को सौंपते है ।
  • श्रीरामानुजाचार्य तिरुक्कोष्टियुर मे प्रसिध्द तिरुक्कोष्टियुरनम्बि (गोष्ठिपूर्ण स्वामीजी) से श्रीसम्प्रदाय के गोपनीय मंत्र रहस्य जानने हेतु तिरुक्कोष्टियुर के लिये जाते है । (मंत्र रहस्य प्राप्त करने १८ वि बार तिरुकोष्टियुर पहुँचते है।)
  • श्रीरामानुजाचार्य उस क्षेत्र मे उपस्थित सभी बद्ध जीवों के उत्थान हेतु गोपनीय मंत्र रहस्य प्राप्त करने के बाद , जग कल्याण हेतु आचार्य की आज्ञा उल्लंघन कर , उन सभी को यह गोपनीय मंत्र रहस्य बतलाते है और इस प्रकार से जीव के  प्रथम कृपामात्राऽचार्य बनकर आचार्य तिरुक्कोष्टियुर नम्बि से एम्पेरुमानार नाम  प्राप्त करते है ।
  • एम्पेरुमानार, शठकोप स्वामीजी की तिरुवाय्मोळि(श्री सहस्रगिती) का कालक्षेप  श्री तिरुमालैयाण्डान  ( मालाधार स्वामीजी) से ग्रहण करते है  ।
  • एम्पेरुमानार पन्चमोपाय निष्ठा (आचार्य निष्ठा) की शिक्षा श्री तिरुवरंगपेरुमाळरयर से ग्रहण करते है  ।
  • एम्पेरुमानार अपने अनुयायियों के समृद्धि , भगवद्-भागवतकैंकर्य हेतु परम कृपा कर श्रीरंग (नम्पेरुमाळ्) और श्रीरंगनाचिय्यार के चरणकमलों में,  फालगुन मास के उत्तर फाल्गुनी नक्षत्र , पांगुनि उत्सव में गद्यत्रय की रचना सुनाकर रामानुज सम्बन्धी के मोक्ष का वचन प्राप्त करते है  ।
  • एम्पेरुमानार को विषपूरित मधुकरी  दिए जाने पर तिरुक्कोष्टियुरनम्बि ने किदम्बी अच्चन ( प्रणतार्तिहर स्वामीजी ) को एम्पेरुमानार के मधुकरी की व्यवस्था का कार्य सौंपते है ।
  • एम्पेरुमानार यज्ञमूर्ति को शास्त्रार्थ मे पराजित कर उन्हे श्रीसम्प्रदाय में दीक्षित कर उन्हें दास्य नाम अरुळाळ पेरुमाळ एम्पेरुमानार (श्री देवराज स्वामीजी) प्रदान कर , स्वयं के तिरुवाराधन पेरुमाळ के कैंकर्य की जिम्मेदारी सौंपते है ।
  • एम्पेरुमानार अनन्ताळ्वान और अन्य वैष्णवों को अरुळाळ पेरुमाळ एम्पेरुमानार के शिष्य बनने का उपदेश देते है ।
  • एम्पेरुमानार अनन्ताळ्वान को तिरुमलै जाकर वहाँ तिरुवेन्गडमुडैयान(श्री वेंकटेश भगवान) के नित्यकैंकर्य मे सम्मिलित होने का आदेश देते है ।
  • एम्पेरुमानार तीर्थयात्रा पर निकलते है और अंत में तिरुमलै पहुँचते है , इतर मतावलम्बियों से विवाद में विजयी हो , तिरुवेन्गडमुडैयान को विष्णु स्वरूपमूर्ति घोषित करते है , स्वयं भगवान के आचार्य बन भगवान को शंख और चक्र धारण करवाते है । (तिरुमला में भगवद्रामानुजाचार्य ज्ञान मुद्रा से विराजमान होकर दर्शन देते । )
  • इसके पश्चात श्रीरामानुजाचार्य श्रीमद्रामायण का भावार्थ कालक्षेप श्री पेरियतिरुमलैनम्बि (श्री शैलपूर्ण स्वामीजी) से सुनकर शिक्षा ग्रहण करते है ।
  • एम्पेरुमानार गोविन्दभट्टर को सन्यास दीक्षा देकर उनका नाम एम्बार रखते है ।
  • एम्पेरुमानार आलवन्दार स्वामी की इच्छा पूर्ति हेतु व्यास सूत्रों की बोधायनवृत्ति पर , टिका (व्याख्या) हेतु श्री कूरत्ताळ्वान के साथ कश्मीर यात्रा पर जाते है, वहाँ पर शास्त्रार्थ में वेदिको को पराजित कर , राजा को प्रसन्न कर बोधायनवृत्ति ग्रन्थ प्राप्त कर,  वापस श्रीरंगम की लिये प्रस्थान करते है, किसी आशंका के चलते कश्मीरी विद्वान अपने अनुचरों के सहायता से यह ग्रंथ रामानुज स्वामीजी से वापस ले लेते है । एम्पेरुमानर ग्रंथ के वापस ले लेने से बहुत निराश और दुखी होते है , एम्पेरुमानर को निराश देख कर श्रीकूरत्ताळ्वान आश्वासन देते है की उन्हे बोधायनवृत्ति पूरि तरह से याद (कंठस्थ) है.  श्रीकूरत्ताळ्वान की सहायता से श्रीएम्पेरुमानार आळवन्दार को दिए हुए वचन ( श्री बादरायण के ब्रह्मसूत्रों पर टिप्पणि) पूरी करते है । टिका पूर्ण होने के पश्चात फिर से कश्मीर प्रवास कर वहाँ स्थित माता सरस्वतीजी को अपनी टिका समर्पित करते है, माता सरस्वती प्रसन्न हो टिका को  श्रीभाष्य के नाम से गौरवान्वित करती  है, और रामानुज स्वामीजी को श्रीभाष्यकार की उपाधि से गौरवान्वित करती है ।
  • एम्पेरुमानार तिरुक्कुरुन्गुडि जाते है और वहाँ के एम्पेरुमान (भगवान ) रामानुज स्वामीजी के शिष्य बनते है, एम्पेरुमानार उन्हें श्रीवैष्णवनम्बि नाम प्रदान करते है ।
  • कूरत्ताळ्वान और आण्डाल को नम्पेरुमाळ के दिव्यकृपाप्रसाद से दो पुत्रों की प्राप्ति होती है और एम्पेरुमानार अपने आचार्य के दूसरे वचन को पूर्ण करते हुए उन दोनो बच्चों का नामकरण खुद करते है – एक का नाम पराशर और दूसरे का नाम वेदव्यास रखते है ।
  • एम्बार के भाई सिरियगोविन्दपेरुमाळ को एक पुत्र की प्राप्ति होती है और उसका नाम एम्पेरुमानार परांकुशनम्बि रखकर आळवन्दार के तीसरे वचन को पूर्ण करते है । कहा जाता है की एम्पेरुमानार ने स्वयम तिरुक्कुरुगैपिरान्पिळ्ळै(परांकुशनम्बि) को आदेश दिया था , की वह तिरुवाय्मोळि पर अपनी व्याख्या लिखें और इस प्रकार भी आळवन्दार स्वामी को दिये तीसरे वचन को भी पूर्ण करते है ।
  • तत्कालीन चोलराजा क्रमीकंठ जो शैव मतावलम्बी था , के उत्पीड़न के कारण एम्पेरुमानार को कुछ समय के लिये श्रीरंगम छोड़ उत्तर पश्चिम राजा बिट्टीदेव के राज्य में प्रवास करना पड़ा, इस राज्य के तिरुनारायणपुरम् में रहकर , यहाँ भगवदाराधनम् को स्थापित कर कईयों को सत्सम्प्रदाय मे दीक्षा देकर भगवद्भागवतकैंकर्य मे सलंग्न करते है ।
  • अपने तिरुनारायणपुरम् प्रवास के समय तोन्नुर में ,एम्पेरुमानार हज़ार जैन साधुओं को अपने आदिशेषवातार का रूप धारण कर शास्त्रार्थ में पराजित करते है ।
  • अपने तिरुनारायणपुरम् प्रवास के समय , एम्पेरुमानार तिरुनरायणपुरम मंन्दिर के उत्सव पेरुमाळ सेल्वपिळ्ळै को एक मुस्लिम राजा की बेटी से प्राप्त कर तिरुनारायणपुरम मे उनकी स्थापना करते है उत्सव पेरुमाळ सेल्वपिळ्ळै के प्रेम में मगन मुस्लिम राजकुमारी के उत्सव पेरुमाळ के पीछे तिरुनारायणपुरम आने के बाद सेल्वपिळ्ळै और मुस्लिम राजकुमारी का विवाह सम्पन्न करवाते है ।
  • एम्पेरुमानार,  शैव राजा के देहान्त के बाद श्रीरंगम पहुँचते है और कूरत्ताळ्वान को आदेश देते है की कांची देवपेरुमाळ की स्तुति करके अपने नेत्र फिर से प्राप्त करें ।
  • एम्पेरुमानार तिरुमालिरुन्सोलै दिव्यदेश जाकर, भगवान सुन्दरबाहु को श्री आण्डाळ की इच्छा के अनुसार सौ घड़े क्षीरान्न और सौ थालि माखन भोग अर्पण करते है ।
  • एम्पेरुमानार पिळ्ळैउरंगविल्लिदासर(श्री धनुर्दास स्वामीजी) की सम्प्रदाय निष्ठा और आचार्य निष्ठा और अभिमान को, एक उत्कृष्ट उदाहरण के रूप में अनेक श्रीवैष्णवों के समक्ष प्रस्तुत करते है ।
  • एम्पेरुमानार अपने शिष्यों को अन्तिम चरम उपदेश , बहुत से सम्प्रदाय के पालनीय रहस्य बतलाते है और कहते है की पराशरभट्टर को मेरा प्रतिबिम्ब मानकर उनकी और भागवतों की सेवा करें और नंजीयर को सत्सम्प्रदाय मे लाने का कार्य पराशरभट्टर को सौंपते है ।
  • अंत मे , १२० वर्ष इस भौतिक जगत में रहकर , श्रीएम्पेरुमानार श्री आळवन्दार के दिव्य मंगल विग्रह का, ध्यान करते हुए अपनी लीला को इस लीलाविभूति मे संपूर्ण कर (यानि तिरुमेनि(भौतिक शरीर) त्यागकर) परमपद को प्रस्थान हुए ।
  • जैसे शठकोप आळ्वार (नम्माळ्वार) की चरमतिरुमेनि को आदिनाथन दिव्यदेश के मन्दिर मे संरक्षित रखा है उसी प्रकार एम्पेरुमानार की चरमतिरुमेनि को भी श्रीरंगनाथभगवान के मन्दिर परिसर में भगवान रंगनाथ के वसंत मंडप में संरक्षित रखा गया हैं ( एम्पेरुमानार के सन्निधि मे स्थित मूलवर तिरुमेनि के नीचे ) ।
  • अंत मे श्रीरामानुजाचार्यजी का चरमकैंकर्य सुसज्जित भव्य रूप से किया गया ठीक उसी तरह जैसे भगवान रंगनाथजी का ब्रह्मोत्सव होता है ।

हमारे सत्सांप्रदाय मे एम्पेरुमानार का विशेष स्थान

कहा गया है – हमारे आचार्य रत्न हार , में श्री एम्पेरुमानार को नायक मणि (मध्य अंश) माना गया है । चरमोपाय निर्णय मे श्री नायनार आचान्पिळ्ळै ( पेरियवाच्चान्पिळ्ळै के सुपुत्र ) श्री एम्पेरुमानार के वैभव और उनकी महिमा को दर्शाया है । इस विशेष भव्य ग्रंथ पर आधारित कुछ निम्नलिखित अंश भागवतों के लिये प्रस्तुत है –

    • भगवद रामानुजाचार्यजी के पूर्व और बाद के आचार्यों का यह मानना है की , हर एक वैष्णव के लिए एम्पेरुमानार ही चरमोपाय है ।
    • हलांकि हमारे पूर्वाचार्य अपने आचार्य पर पूर्ण आश्रित थे, लेकिन इन्ही आचार्यों ने एम्पेरुमानार पर आश्रित होने का सदुपदेश दिया तो इस प्रकार से एम्पेरुमानार का उद्धारकत्व को दर्शाता है ।
    • पेरियवाच्चान पिळ्ळै अपनी कृति मानिक्कमालै मे स्पष्ट रूप से कहते है कि आचार्य स्थान के योग्य केवल एम्पेरुमानार हि है और कोई अन्य नहीं ।
    • एम्पेरुमानार के  पहले के पूर्वाचार्य केवल अनुवृत्ति प्रसन्नाचार्य हुआ करते थे (जो सेवा से संतुष्ट होने के पश्चात शिष्यों को स्वीकार कर और उन्हे सदुपदेश दिया करते थे) । लेकिन एम्पेरुमानार ने इस कलियुग की कठिनाईयों को ध्यान मे रखते हुए निर्धारित किया कि भविष्याचार्यों को केवल प्रसन्नमात्राचार्य नहि बलकि कृपामात्राचार्य होना चाहिये यानि आचार्य को अत्यन्त कृपालु होना चाहिये , शिष्यों को उनका मन देखके स्वीकार करना चाहिये ।
    • जैसे पितृलोक वासित पितृ अपने वंश में अच्छी संतान के जन्म पर आनंदित होते है , वंश में आने वाली पीढ़ियां भी अपने वंश के इस भगीरथ पर गौरवान्वित होती है, ऐसे ही रामानुज स्वामीजी के अवतरण  पर  श्री वैष्णव कुल मे पूर्वाचार्य और भविष्य में आने वाले आचार्य भी गौरवान्वित हुए है, हमारे सत्सम्प्रदाय की सम्वृद्धि हुई है । उदाहरण के लिये – देवकि / वसुदेव , नन्दगोप / यशोदा , दशरथ / कौशल्या , भगवान श्री कृष्ण, भगवान श्री राम के माता पिता बनकर धन्य हुए उसी प्रकार एम्पेरुमानार के प्रपन्न कुल मे प्रकट होने से सारे आचार्य धन्य हुए ।
    • नम्माळ्वार अपने पोलिग पोलिग पाशुर मे भविष्यदाचार्य श्री रामानुज के प्रकट होने की भविष्यवाणी करते है और भविष्यदाचार्य के श्रीविग्रह को श्रीमन्नाथ मुनि स्वामीजी को प्रदान करते हैं । (नम्माळ्वार के अनुग्रहसे श्रीमधुरकविआळ्वार , ताम्रपर्णी नदी के जल को  गरम कर भविष्यदाचार्य के  एक और विग्रह को प्राप्त किये थे)
    • यह भविष्यदाचार्य की दिव्य मूर्ति को संरक्षित कर,  उनकी सेवा श्री नाथमुनि से आरंभ होकर उय्यकोन्डार , मणक्काल्नम्बि, आळवन्दार , तिरुक्कोष्टियूर नम्बि पर्यन्त तक होती रही  । (मधुरकवि आळ्वार द्वारा ताम्रपर्णी के जल को गर्म कर प्राप्त भविष्यदाचार्य का श्रीविग्रह आळ्वार तिरुनगरि के भविष्यदाचार्य सन्निधि में  तिरुवाय्मोळि पिळ्ळै  और मनवाळ मामुनि इत्यादियों ने आराधना किया)
    • पेरिय नम्बि(श्री महापूर्ण स्वामीजी) कहते है – जिस प्रकार रघुकुल मे श्री राम के अवतार लेने से रघुकुल विख्यात हुआ उसी प्रकार रामानुजाचार्य के प्रकट होने से प्रपन्न कुल विख्यात हुआ ।
    • पेरिय तिरुमलै नम्बि (श्री शैलपुर्ण स्वामीजी) अपने शिष्य एम्बार(श्री गोविंदाचार्य स्वामीजी) को कहते है की – वह केवल “एम्पेरुमानार तिरुवडिगले तंजम (शरणागति) ” से एम्पेरुमानार का ध्यान करे और उन्हे उनसे भी अधिक मान्य दे ।
    • तिरुक्कोष्टियूर नम्बि (श्री गोष्टिपूर्ण स्वामीजी)अपने अन्तिम समय में कुछ इस प्रकार कहते है – “मैं बहुत भाग्यवान हूँ,  क्योंकि मुझको श्री रामानुजाचार्य से संबन्ध प्राप्त हुआ”  ।  जब तिरुमलैयान्डान(श्री मालाधार स्वामीजी) और एम्पेरुमानार के मध्य, तत्व ज्ञान पर गलतफ़हमी होती हैं, उस समय तिरुक्कोष्टियूर नम्बि कहते – तुम श्री रामानुजाचर्य स्वामीजी को कुछ नयी शिक्षा नहीं दे रहे हों,श्री रामानुजाचार्य सर्वज्ञ है । जिस प्रकार भगवान श्री कृष्ण अपने गुरु सांदीपनि से शिक्षा ग्रहण करते हैं,  भगवान श्री राम अपने गुरु वशिष्ठ से शिक्षा ग्रहण करते हैं,  उसी प्रकार एम्पेरुमानार हमसे शिक्षा पा कर हमें गौरवान्वित कर रहे है ।
    • अरुळळ पेरुमाळ् एम्पेरुमानार्, आळ्वान, आण्डान, एम्बार, वडुग नम्बि, वन्गि पुरतु नम्बि, भट्टर्, नडातूर् अम्माळ्, नन्जीयर्, नम्पिळ्ळै और अन्य आचार्य ने केवल अपनी  जीवन चर्या से  यहि दर्शाया है की हमे सदैव एम्पेरुमानार का ध्यान  “एम्पेरुमानार तिरुवडिगले तंजम (शरणागति) ” से करना चाहिये ।
    • हमारे पूर्वाचार्यों ने यह दर्शाया है की हमारे लिये उपाय और उपेय केवल श्री रामानुजाचार्य हि है और यह चरमोपाय और अन्तिमोपाय निष्ठा कहलाया गया है ।
    • कुरेश स्वामीजी द्वारा शिष्यत्व प्राप्तकर तिरुवरन्गथमुधनार (रंगामृत देशिक) स्वामीजी , रामानुज स्वामीजी के प्रति अति निष्ठावान हो गए थे, इन्होने रामानुज स्वामीजी के श्रीरंगम निवास के समय , नम्पेरुमाळ(श्री रंगनाथ भगवान) की आज्ञा से रामानुज स्वामीजी के प्रति अपनी शरणागति में रामानुज नुट्रन्दादि ( प्रपन्न गायत्री) नाम से , रामानुज स्वामीजी के वैभव में १०८ पशुरों की रचना की, रचना को देख नम्पेरुमाळ ने इसे अपने  पुरप्पाडु(पालकी) उत्सव में बिना वाद्यों के इसके गायन की आज्ञा दी । कालांतर में पूर्वाचार्यो द्वारा रामानुज स्वामीजी के वैभव में इस रचना को द्रविड़ वेद के प्रबंधों के साथ गाया जाने लगा । इसे प्रपन्न गायत्री कहा गया जिसका सम्पूर्ण पाठ हर श्री वैष्णव को दिन मैं एक बार तो करना ही चाहिए ।

     

मणवाळमामुनि(श्री वरवरमुनि स्वामीजी) ने अपने उपदेश रत्नमालै में , वर्णित किया है, स्वयं नम्पेरुमाळ ने इस सत्सम्प्रदाय को “एम्पेरुमानार दर्शन”(“श्री रामानुज दर्शन”) नाम से सम्बोधित किया है । वे कहते है – एम्पेरुमानार के पूर्वाचार्य केवल अनुवृत्तिप्रसन्नाचार्य हुआ करते थे, वे अपनी लम्बी अवधि तक सेवा करने वाले कुछ सेवको को ही शिष्य रूप में स्वीकार किया करते थे । एम्पेरुमानार ने पूर्वाचार्यो की इस भावना को बदल , इस कलिकाल में सभी जीवो के उद्धार हेतु कृपामात्राचार्य  बन मोक्ष को प्राप्त करने के इच्छुक जीवो को सत्सम्प्रदाय में दीक्षित करने का आह्वान किये , इस कार्य की सुलभता के लिए रामानुज स्वामीजी ने ७४ सिंहासनाधिपतियों को नियुक्त कर , इन्हे सत्सम्प्रदाय के प्रचार प्रसार की जिम्मेदारी दे, भागवतों को सुलभ मोक्ष का अधिकारी बनाने को कहा. सनातन धर्म का प्रचार प्रसार कर सबको इस प्रपन्न कुल के दिव्य अनुग्रह के योग्य बनाया ।

भगवद रामानुज स्वामीजी के असीमित वैभव का वर्णन करना असंभव है,  पूर्वाचार्यो का यह मानना था की अगर भगवद रामानुज स्वामीजी अपने वैभव का बखान करते तो शायद सहस्त्र फना होकर भी , अपने वैभव का बखान वह सम्पूर्ण नहीं कर पाते , ऐसे में हम क्या कर पाएँगे, यहाँ एम्पेरुमानार के विशेष अवतार का वर्णन बहुत ही संक्षिप्त और सरल भाषा मे प्रस्तुत किया गया है । श्री एम्पेरुमानार के अवतार की महिमा और उनके वैभव का वर्णन विशेषतः असीमित है । हमे श्री एम्पेरुमानार के गौरव , वैभव और महिमा का पाठ , स्मरण कर अपने आप को तृप्त करना चाहिये।

हमारा सौभाग्य है , हम एम्पेरुमानार के प्रपन्न कुल में जन्म लिये है।

एम्पेरुमानार तनियन् –

योनित्यमच्युत पदाम्भुज युग्मरुक्म व्यामोहतस्तदितराणि तृणाय मेने ।

अस्मद्गुरोर्भगवतोऽस्य दयैकसिंधोः रामानुजस्य चरणौ शरणम् प्रपद्ये ॥

अडियेन सेतलूर सीरिय श्रीहर्ष केशव कार्तीक रामानुज दासन् और अडियेन वैजयन्त्याण्डाळ रामानुज दासि

अडियेन इन्दुमति रामानुज दासि

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