:श्री:
श्रीमते रामानुजाय नम:
श्रीमद वर वर मुनये नम:
श्री वानचल महा मुनये नम:
श्री नम्माल्वार् आळ्वार के बाद ओराण्वळि आचार्य परम्परा में अगले आचार्य श्रीनाथमुनि आते है ।
नाथमुनि – काट्टूमन्नार् कोविल् (वीरनारायणपुरम)
तिरुनक्षत्र : आषाढ मास, अनुराधा नक्षत्र
अवतार स्थल : काट्टूमन्नार् कोविल् ( वीर नारायण पुरम )
आचार्य : नम्माल्वार्
शिष्यगण : उय्यकोण्डार् , कुरुगै कावलप्पन् , पिळ्ळै करुणाकर दासर् ,नम्बि करुणाकर दासर्, ऎरु तिरुवुडैयार् , तिरुकण्णमंगै आण्डान् , वानामामलै दैव नायक आण्डान् , उरुप्पत्तूर अचानपिळ्ळै , शोगतूराल्वान् , कीळैयगताळ्वान्, मेलैयागताळ्वान्
ग्रन्थ : न्यायतत्वं , योग रहस्यम , पुरुष निर्णयम
श्रीमन् नाथमुनि वीरनारायणपुरं मे ईश्वरभट्टाळ्वार् के घर जन्म लिए । श्रीमन् नाथमुनि को श्रीरन्गनाथमुनि और नाथब्रह्म नामों से भी जाना जाता है, दोनों ही नामो में नाथ होने की वजह से शायद छोटे नाम से नाथमुनि नाम से ज्यादा गौरवान्वित हुए |
श्रीमन् नाथमुनि अष्टांग योग और संगीत के विद्वान थे । इन्होंने श्रीरंगम में भगवान अरंगनाथार (रंगनाथजी) की अरयर सेवा ( अरयर सेवा याने , दिव्य प्रबंधों को संगीतमय ताल में नृत्य के साथ प्रस्तुत करना) की शुरुआत की थी, जो आज भी तिरुवरन्गम, आल्वार् तिरुनगरि , और श्री विल्लिपुत्तूर् मे उत्सव और अन्य दिनों में आज भी आयोजित होती है ।
नाथमुनि उत्तर भारत के दिव्य देशो, अभिमान देशो की यात्रा के लिए अपने पिता, पुत्र और अन्य कुटुम्ब सदस्यों के साथ मथुरा, वृन्दावन्, गोवर्धन धाम, द्वारका, बद्रीनाथ, नैमिषारण्य इत्यादि दिव्य धामों के लिये वीरनारायणपुराम से प्रस्थान हुए । यमुना नदी के तट पर स्थित गोवर्धनपुर् गाँव, नाथमुनि को बहुत ही प्रभावित किया , यही पर एक गुफा में रहकर एम्पेरुमान् को यमुनैत्तुरैवर् के रुप मे सेवा कर रहे थे। एक दिन सपने में एम्पेरुमान् उन्हें काट्टूमन्नार् कोविल् (वर्तमान मन्नारगुडी भगवान राजगोपाल स्वामी का अभिमान देश) को लौट आने का आदेश देते है । यह सन्देश प्राप्त कर वह काट्टूमन्नार् कोविल् के लिए निकल पड़ते है । वापसी में वे वारणसि, पूरी, सिंहाचल, घटिकाचल्, कांचीपुरम (आस पास के दिव्य स्थल), तिरुवहिन्द्रापुरम, तिरुकोवलूर्, तिरुवरन्गम् और तिरुकुडन्दै दिव्य स्थानों के मंगलाशासन करते हुए काट्टूमन्नार् कोविल् पहुँचते है।
काट्टूमन्नार् कोविल् में, एक दिन मेल्नाडु से , श्रीवैष्णवों का समूह काट्टूमन्नार् कोविल् पहुँचता है, भगवान के दर्शन के समय नम्माळ्वार आळ्वार द्वारा रचित तिरुवोईमोजहि की एक पत् याने १० या ११ पाशुर जो “अरुवामुदन”/ “अर्वामुतन” यह एक द्रविड़ शब्द है, जिसका अर्थ है “रूचि के साथ” / “तन्मयता के साथ” भगवान को गाकर सुनाते हैं । नाथमुनि उन वैष्णवों के मुख से पाशुरो को सुनने के बाद, वैष्णवों से और सुनाने को कहते है, इसपर वैष्णव बतलाते है उन्हें इतने ही आते है, तब नाथमुनि उन पाशुरों कहाँ से प्राप्त कर सकते है , श्रीवैष्णव विचार व्यक्त करते हैं कि उन्हें केवल ११ पाशुरो की जानकारी है और उन्हें सूचित करते है आल्वार् तिरुनगरि मे इन्हें शेष पाशुरो की जानकारी प्राप्त हो सकती हैं ।
उनके विचार से सहमत, नाथमुनि आल्वार् तिरुपगरि पहुँचते है । वहाँ उनकी मुलाकात मधुरकवि आल्वार् के शिष्य परांकुश दासर् से होती है। परांकुश दासर् उन्हें बतलाते है की , वह मधुरकवि आल्वार् द्वारा नम्माळ्वार आळ्वार के गौरव , रचित “कण्णिनुण् सिरुताम्बू ” के ११ पाशुर का तिरुपुलियामाराम ( इमली का वह पेड़ जिसको खोह नम्माळ्वार आळ्वार ध्यान मग्न बैठे थे) के सामने १२००० बार बिना किसी अवरोध के जप करे । परांकुश दासर् के बताये हुए क्रम के अनुसार नाथमुनि स्वामीजी (जो अष्टांग योग के अधिकारी हैं) जप आरम्भ करते हैं । नाथमुनि के इस जप से प्रसन्न होकर नम्माळ्वार आळ्वार उनके सामने प्रकट होते हैं | उन्हे अष्टांग योग का परिपूर्ण ज्ञान और आळ्वार संतो द्वारा रचित ४००० दिव्य प्रबंध पाशुर (अरूलिचेयल्) अर्थ सहित प्रदान करते हैं | जिस तरह एम्पेरुमन्नार ने नम्माळ्वार आळ्वार पर विशेष अनुग्रह किये थे, ऐसे ही नम्माळ्वार आळ्वार ने नाथमुनि स्वामीजी पर विशेष अनुग्रह कर इन द्रविड़ वेदो को प्रदान किये | नम्माळ्वार आळ्वार की इस विशेष कृपा को मणवालमामुनि अपनी उपदेश रत्नमाला मे “अरुल पेट्रा नाथमुनि ” (अनुग्रह पात्र नाथमुनि) कह वर्णित करते है|
नाथमुनि काटटुमन्नार् कोविल पहुँच , मन्नार् को ४००० पाशुरो सुनाते हैं | प्रसन्न होकर मन्नार् ४००० पाशुरों को विभजित करके प्रचार – प्रसार करने का आदेश देते हैं | मन्नार् के आदेश अनुसार ४००० पाशुरो को नाथमुनि स्वामीजी , लय , सुर और ताल के सम्मिश्रण कर ४ भाग कर, अपने दोनों भांजे कीळैयगताळ्वान् और मेलैयागताळ्वान् पर अनुग्रह कर दिव्यप्रबन्ध का ज्ञान देकर इनके द्वारा इन दिव्य प्रबंधों का प्रचार – प्रसार करते हैं |
नाथमुनि दिव्यसंगीत के भी महा विद्वान थे | एक समय, उस गाँव के राजा एक साधारण और विशेष (दिव्य) गायक के बीच कोई अंतर नही कर पा रहे थे | नाथमुनि ने अति सरलता से अंतर पहचान इस समस्या को सुलझा दिया | राजा ने यह देख नाथमुनि स्वामीजी की संगीत की प्रवीणता की परीक्षा लेनी चाही, तब नाथमुनि स्वामीजी जवाब देते है की , वह ४००० झांझो की सम्मिलित ध्वनि सुनकर , एक एक झांझ की ध्वनि और उसके वजन का अनुमान कर सकते हैं | यह सुन राजा को नाथमुनि स्वामीजी की संगीत में प्रवीणता समझ आती हैं, राजा नाथमुनि स्वामीजी को ढेर सारा धन देकर गौरवान्वित करते हैं | पर भौतिक सुखो को तुच्छ समझने वाले नाथमुनि स्वामीजी , इस धन संपत्त्ति के लिए कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं करते |
अपने दिव्य ज्ञान , अपने अष्टांगयोग की साधना से भविष्य को देखते हुये, अपने पौत्र का आगमन देखते है, अपने पुत्र ईश्वर मुनि से कहते है की, उनके पुत्र को यमुनै तुरैवर् (कृष्ण प्रेम के कारण – जो यमुना नदि से सम्बंधित हो) उन्हीके ऊपर नामकरण करने का आदेश देते है, और अपने शिष्य बृंद से वचन मांगते हैं की वे यमुनै तुरैवर् (आल्वन्दार) को सभी शास्त्रों का ज्ञान प्रदान कर शास्त्र ज्ञान में निपुण बनाएंगे ।
अपना अंतिम समय निकट जान कर नाथमुनि स्वामीजी, आस पास की परिस्थिथो से विस्मरित हो एम्पेरुमान के ध्यान में निमग्न रहते थे । एक दिन उनसे मिलने राजा और रानी आते है । ध्यानमग्न स्वामीजी को देख , राजा और रानी लोट जाते है । प्रभु प्रेम , लगन और भक्ति में मग्न, नाथमुनि स्वामीजी को ऐसा आभास होता है की भगवान श्री कृष्ण गोपियों के साथ आए और उनको ध्यानमग्न अवस्था में देखकर वापस लोट गये है, अपने इस आभास से दुखी हो श्रीनाथमुनि राजा और रानि की ओर दौड़ते है |
अगली बार शिकार से लोटते हुए राजा, रानी, एक शिकारी, एक वानर के साथ उनसे मिलने के लिए आते हैं । इस बार भी नाथमुनि स्वामीजी को ध्यान मग्न देख , राजा फिर से लोट जाते हैं । नाथमुनि जी को इस बार यह लगता हैं की श्री राम चन्द्र, माता सीता, लक्ष्मण जी और हनुमान जी उन्हें दर्शन देने पधारे हैं , पर उन्हें ध्यान मग्न देख लौट गये और इसी आभास में , नाथमुनि उनके दर्शन पाने उनके पीछे दौड़ते हैं । जब वह छवि उनकी आँखों से ओझल हो जाती हैं, भगवान से वियोग सहन न कर पाने के कारण नाथमुनि मूर्छित हो प्राणों को छोड़ देते हैं और परमपद प्राप्त कर लेते है । यह समाचार सुनकर तुरन्त ईश्वर मुनि , शिष्य बृंद के साथ वहाँ पहुँचते हैं और उनके अन्तिम चरम कैंकर्य करते है ।
नाथमुनि स्वामीजी के प्रयास से प्राप्त इन दिव्य प्रबंधों, के कारण ही आज श्री वैष्णव साम्प्रदाय का ऐश्वर्य हमें प्राप्त हुआ हैं । इनके बिना यह प्राप्त होना दुर्लभ था । आल्वन्दार स्वामीजी , नाथमुनि स्वामीजी के पौत्र अपने स्तोत्र रत्न में नाथमुनि की प्रशंसा शुरुआत के तीन श्लोकों मे करते है ।
पहले श्लोक में बताते हैं की ” मैं उन नाथमुनि को प्राणाम करता हुँ जो अतुलनीय हैं, विलक्षण हैं और एम्पेरुमानार् के अनुग्रह से अपरिमित ज्ञान भक्ति और वैराग्य के पात्र हैं ।
दूसरे श्लोक में कहते हैं की ” मैं उन नाथमुनि जी के चरण कमलों का, इस भौतिक जगत और अलौकिक जगत में आश्रय लेता हूँ जिन्हें मधु राक्षस को वध करने वाले (भगवान श्री कृष्ण) के श्री पाद कमलों पर परिपूर्ण आस्था , भक्ति और शरणागति ज्ञान हैं” ।
तीसरी श्लोक में कहते हैं की ” मैं उन नाथमुनिजी की सेवा करता हूँ जिन्हें अच्युत के लिए असीमित प्रेम हो निजज्ञान के प्रतीक हैं , जो अमृत के सागर हैं , जो बद्ध जीवात्माओ के उज्जीवन के लिए प्रकट हुए हैं, जो भक्ति में निमग्न रहते हैं और जो योगियों के महा राजा हैं ।
उनके अन्तिम और चौथे श्लोक में एम्पेरुमान् से विनति करते हैं की, उनकी उपलब्धियों को न देखकर , बल्कि उनके दादा की उपलब्धिया और शरणागति देखकर मुझे अपनी तिरुवेडी का दास स्वीकार किया जाय ।
इन चारो श्लोक से हमें नाथमुनि जी के महान वैभव की जानकारी होती हैं ।
आईये उनकी वैभवता जान, उनके श्री चरण कमलो में प्रार्थना करे की हमे भी उन्हि की तरह अच्युत और अल्वार आचार्यो के श्रीचरणों में अटूट् विश्वास और प्रेम प्राप्त हो |
नाथमुनि तनियन
नमःचिन्त्यादभुताक्लिष्ट ज्ञान वैराग्य राशये ।
नाथायमुनयेगाध भगवद्भक्ति सिन्धवे ॥
अडियेंन इन्दुमति रामानुज दासि
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