तिरुक्कण्णमन्गै आण्डान्

श्रीः
श्रीमते शठकोपाय नमः
श्रीमते रामानुजाय नमः
श्रीमद्वरवरमुनये नमः
श्री वानाचलमहामुनये नमः

जन्म नक्षत्र : ज्येष्ठा – श्रवण नक्षत्र
अवतार स्थल : तिरुक्कण्णमन्गै
आचार्य : नाथमुनि स्वामीजी
जहाँ परमपद प्राप्त किया : तिरुक्कण्णमन्गै
रचना : नाच्चियार तिरुमोली की तनियन जो “अल्लि नाल थामरै मेल्” से शुरू होती है

Thirukkannamangai_bhakthavatsalanभक्तवत्सल भगवान तायार् के साथ – तिरुक्कण्णमन्गै

thirukkannamangai-andan-thiruvarasuतिरुक्कण्णमन्गै आण्डान् – तिरुक्कण्णमन्गै

तिरुक्कण्णमन्गै आण्डान्, नाथमुनीजी के प्रिय शिष्य, का अवतार तिरुक्कण्णमन्गै में हुआ। हमारे पूर्वाचार्य भगवान के संरक्षण (रक्षकत्व स्वभाव अर्थात् अपने आश्रयों की रक्षा करने की शक्ति) में परम विश्वास रखने वाले आप श्री की इस महिमा का सदैव गुणगान करते है।
उनकी महिमा श्रीवचन भूषण दिव्य शास्त्र में पिल्लै लोकाचार्य द्वारा बताया गया है। उपाय (भगवान को पाने का मार्ग) और उपेय (भगवान की सेवा ही लक्ष्य) के सबसे आदर्श उदाहरणो के बारे में समझाते हुए,  –

सूत्र 80 में वह कहते है –
“उपायत्तुक्कू पिराट्टियैयुम्, ध्रौपतियैयुम्, तिरुक्कण्णमन्गै आण्डानैयूम् पोले इरुककावेनुं; उपेयत्तुक्कू इलैय पेरुमालैयूम् , पेरिया उडैयारैयुम् , पिल्लै तिरुनरैयूर अरैयरैयुम् चिन्तयन्तियैयूम पोले इरुककावेनुं”

इस सूत्र और अगले कुछ सूत्रों में उन्होंने उपाय और उपेय को उत्कृष्ट उदाहरण के साथ समझाया है। उपाय एक प्रक्रिया है और उपेय लक्ष्य है। शास्त्रोँ के अनुसार भगवान सबसे अच्छे उपाय है और भगवान की सेवा ही सर्वोच्च लक्ष्य है। क्यूंकि भगवान हर तरह से सक्षम है, वे आसानी से किसी का भी उत्थान कर सकते है और इसलिए वे ही सर्वोत्तम उपाय है। भगवान श्रीमन्नारायण जगत के एकमात्र स्वामी है, उनका और उनकी पत्नी श्री महालक्ष्मी का कैंकर्य ही सर्वश्रेष्ठ उपाय है। उपाय और उपेय को समझाने के लिए कुछ उदाहरण संक्षेप में दिए गए है।

उपाय –

  • सीता जी (श्री महालक्ष्मी जी) – जब रावण ने सीता जी का हरण करके उन्हें बंदी बना कर रखा, तब वह स्वयं को बचाने और रावण को दंड देने में पूरी तरह से सक्षम थी । उन्होंने अपनी क्षमता का प्रदर्शन हनुमान की रक्षा द्वारा किया था जब राक्षसों ने उनकी पूंछ में आग लगा दी थी । उन्होंने “शीतो भवः” (इस आग का हनुमान पर शीतल प्रभाव हो) ऐसा आशीर्वाद दिया और हनुमान की रक्षा की। परंतु उन्होंने अपनी पूरी निर्भरता श्री राम के प्रति प्रकट की, स्वयं की रक्षा करने की शक्ति को त्याग दिया और श्री राम आकर उनकी रक्षा करेंगे ऐसी प्रतीक्षा करने लगी।
  • द्रौपदी – जब द्रौपदी को कौरवों की सभा में अपमानित किया गया था उन्होंने पूरी तरह से अपनी लाज की चिंता छोड कर अपने हाथ उपर उठाए और श्रीकृष्ण को पुकारी। उन्होंने अपनी लाज बचाने के लिए वस्त्रों को नहीं पकडा अपितु पूरी श्रद्धा से अपने हाथों को उठाया और श्रीकृष्ण ने उनकी निश्चित रुप से रक्षा की।
  • तिरुक्कण्णमन्गै आण्डान् ने अपने सभी कार्यों को छोड दिया और तिरुक्कण्णमन्गै दिव्य देश के भक्तवत्सल भगवान को अपना रक्षक स्वीकार करके उनके समक्ष स्वयं को पूरी तरह से समर्पित कर दिया।

वरवरमुनि स्वामी जी ने इस सूत्र के व्याख्यान में आण्डान् की निष्ठा को सुंदरता से समझाया है । एक बार आण्डान् ने देखा एक व्यक्ति एक कुत्ते पर हमला करता है। यह देखकर कुत्ते का मालिक बहुत नाराज होता है और कुत्ते पर हमला करने वाले से झगड़ा करता है। वे दोनों अपने चाकू बाहर निकालते है और एक दूसरे पर हमला करते हैं, यहाँ तक की एक दूसरे को मारने के लिए तैयार हो जाते हैं। इसे देखकर आण्डान् को एहसास होता है। आण्डान् सोचते हैं कि जब एक साधारण व्यक्ति जिसके पास एक कुत्ता है अपने कुत्ते पर हमला करने वाले पर क्रोधित होता है और उसे मारने की हद तक जा सकता है क्यूंकि वह उस कुत्ते का स्वामी है, तो श्रीमन्नारायण जो जगत के स्वामी हैं, वे कैसे महसूस करते होंगे जब कोई शरणागत पीडित हो और स्वयं अपने को बचाने की कोशिश करता हो। ऐसा सोचकर आण्डान् तुरंत अपने सारे मोह का त्याग कर देते हैं और अपनी रक्षा के बाबत बिना किसी अधिक चिंता के मंदिर मेँ जाकर खुशी से भगवान के चरणो में लेट जाते हैं। यहाँ सभी कार्योँ के त्याग का अर्थ कुछ भी नहीं करने से समझा जा सकता था परंतु  वरवरमुनि स्वामीजी ने इस सिद्धांत को बहुत ही सुंदरता से अपने व्याख्यान में समझाया है।

“स्वरक्षण हेतुवान स्व-व्यापरंगलै विट्टान् एन्रपडि”, उनके दिव्य वचन है – अर्थ उन्होंने ऐसे सभी कार्यो का त्याग किया जो स्वयं की रक्षा से संबंधित थे। इसका अभिप्राय है कि उन्होंने भगवान की प्रति अपने अदभुत कैंकर्य को जारी रखा और सिर्फ स्वयं की रक्षा करने के प्रयासों का त्याग किया। आय जनन्याचार्य ने भी इसी सिद्धांत पर प्रकाश डाला है। इसे आगे आने वाले भागो में समझा जा सकता है, विशेषतः उस घटना के माध्यम से जो तिरुवाय्मोलि 9.2.1 व्याख्यान में दर्शायी गयी है।

उपेय (कैंकर्य) – सूत्र 80 के शेष भाग और आगे के भागों का संक्षिप्त विवरण

  • लक्ष्मणजी – लक्ष्मणजी श्री रामजी के प्रति अपने कैंकर्य में बहुत दृढ और तेज थे। जहाँ जहाँ श्री राम जाते थे लक्ष्मणजी वहाँ वहाँ उनकी सेवा किया करते थे।
  • जटायु महाराज – सीताजी को बचाने के लिए, रावण से लड़ाई करते हुए, जटायुजी को अपने प्राणो की भी परवाह नहीं थी, उनका पूरा ध्यान सिर्फ सीताजी को बचाने में था और अंत में वे रावण द्वारा मारे गए।
  • पिल्लै तिरुनरैयूर अरैयर – वह अपने परिवार के साथ तोट्टियम तिरुनारायणपुर (जो श्रीरंगम के पास स्थित है) के भगवान की सेवा करते थे। एक बार कुछ वंडलो ने मंदिर पर हमला किया और भगवान के अर्चा विग्रह को आग लगा दी। वे हमले को सहन न कर सके और भगवान की रक्षा के लिए अपने परिवार सहित भगवान के अर्चा विग्रह को गले से लगा लिया और इस तरह उन्होंने भगवान का संरक्षण किया। ऐसे में, आग से जलने के कारण उन्होंने अपने परिवार के साथ अपना जीवन छोड़ दिया। हमारे पूर्वाचार्यों ने भगवान के प्रति उनके समर्पण के लिए उनकी बड़ी प्रशंसा की है।
  • चिन्तयंती – ब्रज भूमि में एक गोपिका रहती थी। उनका श्री कृष्ण भगवान से बहुत लगाव था। एक बार श्री कृष्ण भगवान की दिव्य मधुर धुन सुनकर, वे आनंदित हो जाती है और उन्हें देखने के लिये घर से निकलना चाहती है। परंतु वह घर से नहीं निकल पाती और बहुत दुखी हो जाती है। भगवान की बांसुरी की धुन सुनने के आनंद से उनके पुण्य कर्म (पुण्य, खुशी प्रदान करता है) समाप्त हो जाते हैं और घर से ना निकल पाने के महान दुख से उनके पाप कर्म समाप्त हो जाते हैं । क्यूंकि उनके पुण्य और पाप सब समाप्त हो जाते हैं, वे उसी समय परमपद के लिये प्रस्थान करती है (हमारे पुण्य और पाप हमें इस संसार में बाँधते हैं, जब वो समाप्त होते हैं तब हमारा उत्थान हो जाता है)। इस प्रकार परमपद जाने और वहाँ सदा भगवान की सेवा के अंतिम लक्ष्य को उन्होंने आसानी से प्राप्त किया।

आण्डान् ने तिरुक्कण्णमन्गै भगवान की सेवा करते हुए अपना शेष जीवन व्यतीत किया और फिर भव्यता से परमपद की ओर प्रस्थान किया और वहाँ परमपदनाथ भगवान के दिव्य कैंकर्य को जारी रखा।

व्याख्यान और पूर्वाचार्यो के ग्रंथो में कुछ स्थानों पर आण्डान् के जीवन और वैभव को प्रस्तुत किया है। अब हम उन्हें देखते हैं।

  • नाच्चियार तिरुमोली 1.1 – पेरियवाच्चान् पिल्लै व्याख्यान – आंडाल बताती है “तरै विलक्कि” – फर्श की सफाई के द्वारा। पिल्लै बताते है की आण्डान् सफाई का कैंकार्य चरम लक्ष्य की तरह करते थे (कुछ पाने के साधन भाव से नहीं)।
  • तिरुमालै 38 – पेरियवाच्चान् पिल्लै व्याख्यान – “उन कदैत्तलाई इरुन्तु वालुम सोम्बर” को समझते हुए पिल्लै कहते है “वालुम सोम्बर” (जीवित आलसी व्यक्ति) का आश्रय उनसे है जिन्हें भगवान पर पूरा विश्वास है ठीक वैसा जैसे कुत्ते के स्वामी द्वारा कुत्ते की रक्षा किये जाने कि क्रिया को देखकर, आण्डान् ने भक्तवत्सल भगवान के प्रति प्रदर्शित किया । “वालुम सोम्बर” का विपरीत “तंजूम सोम्बर” (असली आलसी व्यक्ति) है, जो किसी भी कैंकर्य में संलग्न नहीं होते और जीवन बर्बाद करते है ।
  • तिरुवाय्मोलि – 9.2.1 – नम्पिल्लै ईडु व्याख्यान – शठकोप स्वामीजी 10.2.7 में कहते हैं “कदैत्तलै चीयक्कप्पेत्ताल कड़ुविनै कलैयलामें”, भगवान के मंदिर के फर्श की सफाई करने मात्र से पापो को हटाया जा सकता है। आण्डान् सब कुछ त्यागकर तिरुक्कनमंगै भक्तवत्सल भगवान की सन्निधि में रहने के लिये प्रसिद्ध थे। वे सफाई के कैंकर्य से जुड़े थे और वह यह कैंकर्य नियमित रूप से करते थे। तिरुवाय्मोलि 9.2.1 व्याख्यान में नम्पिल्लै बहुत सुंदरता से एक महत्वपूर्ण पहलू स्थापित करते है। यहाँ इस पासुर में शठकोप स्वामीजी भगवान से कहते है – “हम प़ीढियो से बहुत से अलग अलग कैंकर्य कर रहे है जैसे की मंदिर की सफाई करना, आदि”। यहाँ एक प्रश्न उठता है। प्रपन्न भगवान को ही एक मात्र उपाय रूप से स्वीकार करते हैं। प्रपन्न का किसी भी तरह के स्व प्रयासों से संबंध नहीं है– फिर आखिर कैंकर्य क्यूं ? यह नम्पिल्लै ने आण्डान् के निम्न व्रत्तांत द्वारा बहुत सुंदरता से समझाया है। उनके एक सहपाठी (जो नास्तिक थे) आण्डान् से पूछते हैं कि वो स्वयं को फर्श की सफाई करके क्यूं परेशान करते हैं जब उनकी स्वयं के प्रयासो में कोई भागीदारी नहीं है। आण्डान् उन्हें एक जगह दिखाते हैं जहाँ धुल है और दूसरी जगह जहाँ धुल नहीं है, और कहते हैं कि झाडू लगाने का परिणाम यह है की जगह साफ़ रहती है, इससे ज्यादा कुछ नहीं। वह पूछते हैं – क्या तुम साफ और गंदी जगह के बीच अंतर नहीं पहचान सकते? इस तरफ से हम समझ सकते हैं कि कैंकर्य करना हमारे दास होने का प्राकृतिक गुण है और कैंकर्य करना उपाय नहीं है। वचन भूषण के सूत्र 88 में पिल्लै लोकाचार्य बड़ी सुंदरता से समझाते हैं – एक भौतिक इच्छाओं से संचालित व्यक्ति अपनी (या अपने प्रियजनों की) भौतिक इच्छाओं को पूरा करने के लिये बहुत कुछ करता है, तो एक प्रपन्न (जिसने अपने को भगवान को समर्पित कर दिया हो) की कितनी चाहत होना चाहिये भगवान की सेवा करने की जो सर्वोच्च आनंददायक है और जीवात्मा के वास्तविक स्वरूप से सेवित होने के लिये उपयुक्त है ?
  • चरमोपाय निर्णय – नाथमुनि स्वामीजी ने स्वयं शठकोप स्वामीजी से आल्वार तिरुनगरी में 4000 दिव्य प्रबंध सीखे और वीरनारायणपुर लौट आए। उन्होंने वहाँ मन्नार भगवान के समक्ष वह दिव्य प्रबंध सुनाया और भगवान से सभी सम्मान प्राप्त किये। फिर वे अपने निवास पर पहुंचे और अपने भतीजे कीऴै अगतु आल्वान और मेलै अगतु आल्वान को आमंत्रित किया। वह आलवार से मिली विशेष दया और आलवार द्वारा स्वप्न में दिखाये गये दिव्य स्वरूप के बारे में उन्हें बताते हैं ( नाथमुनि के स्वप्न में शठकोप स्वामीजी रामानुज का दिव्य स्वरूप दिखाते है, जो भविष्य में जीवो के उत्थान के लिये प्रकट होने वाले हैं)। वे दोनों इसे सुनकर चकित रह जाते हैं और संतुष्ट होते हैं की इन महानुभाव से वे किसी तरह संबंधित हैं। उसके बाद नाथमुनीजी अपने प्रिय शिष्य आण्डान् को तिरुवाय्मोलि के माध्यम से द्वय महा मंत्र का अर्थ सीखा रहे थे (जो एक उचित शिष्य होने के योग्य हैं )। “पोलीगा पोलीगा “ पासुर में नाथमुनीजी शठकोप स्वामीजी के दिव्य वचनों और स्वप्न में देखी हुई घटनायें बताते हैं । ऐसा सुनकर आण्डान् कहते हैं – मैं धन्य हूँ जो मेरा संबंध आप जैसे महानुभाव से है जिन्होंने स्वप्न में भविष्यदाचार्य का दिव्य स्वरूप देखा। इस वृत्तांत का उल्लेख नारायण पिल्लै, पेरियवाच्चान् पिल्लै के दत्तक पुत्र, ने अपने ग्रंथ चरमोपाय निर्णय (http://ponnadi.blogspot.in/2012/12/charamopaya-nirnayam-thirumudi.html)  में किया है ।
  • वार्ता माला 109 – पिंभऴगिय पेरूमाल जीयर उसी सिद्धान्त को समझाते हैं जो हमने श्रीवचन भूषण सूत्र में पहले देखा। यहाँ वे बताते हैं कि कैसे भगवान को पाये और कैसे पुरी तरह से उन पर निर्भर रहे इसके सर्वोच उदाहरण है सीताजी, द्रौपदी और आण्डान्।
  • वार्ता माला 234 – यहाँ सामान्य शास्त्र (वर्णाश्रम धर्म) से अधिक विशेष शास्त्र (भागवत धर्म) के महत्व पर ध्यान केंद्रित करने पर बल दिया गया है और यह बताया गया है कि हमें यह नहीं सोचना चाहिये की ऐसी निष्ठा मात्र अत्यधिक ऊँचे अधिकारियों जैसे भरतजी, आण्डान् के लिये सम्भव है। अपितु हर किसी को उसके लिये प्रयास करना चाहिये और भगवान की कृपा से हम भी इस विश्वास में दृढ हो जायेंगे।

इस प्रकार हमने तिरुक्कण्णमन्गै आण्डान् के गौरवशाली जीवन की कुछ झलक देखी। हम भी उनके श्रीचरण कमलो में प्रार्थना करें कि हमे भी भगवान पर इस तरह का पूर्ण विश्वास प्राप्त करें ।

अडियेन् भगवति रामानुज दासि

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