मुदलियाण्डान् (दाशरथि स्वामीजी)

श्री:
श्रीमते रामानुजाय नम:
श्रीमद् वरवरमुनये नम:
श्री वानाचल महामुनये नम:

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तिरुनक्षत्र: पुनर्वसु, मेष मास

अवतार स्थल: पेट्टै

आचार्य: श्री रामानुज स्वामीजी

स्थान जहां उनका परमपद हुआ: श्रीरंगम

कार्य: धाटी पंचकम, रहस्य त्रयं (अब उपलब्ध नहीं हैं)

आनन्द दीक्षितर और नाचियारम्मा के पुत्र के रूप में जन्में आपश्री का नाम दाशरथि रखा गया । ये श्री रामानुज स्वामीजी के सम्बन्धीक हैं। आप रामानुजन पोण्णदि, यतिराज पादुका, श्रीवैष्णव दासर, तिरुमरुमार्भन और मुदलियाण्दान (यानि श्रीवैष्णवों में मार्ग दर्शक) के नाम से अधिक विख्यात हुए। आप श्री रामानुज स्वामीजी के चरण पादुका और त्रिदण्ड के नाम से भी जाने जाते हैं।

नोट : श्री कुरेश स्वामीजी और श्री दाशरथि स्वामीजी श्री रामानुज स्वामीजी को इतने प्रिय थे कि वह उनसे कभी अलग हो ही नहीं सकते थे – श्री कुरेश स्वामीजी श्री रामानुज स्वामीजी के जल पवित्रं (श्री रामानुज स्वामीजी के त्रिदण्ड पर जो झण्डा लगा हैं) से जाने जाते हैं।

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श्री कुरेश स्वामीजी, श्री रामानुज स्वामीजी, श्री दाशरथि स्वामीजी – अपने अपने जन्म स्थान से

श्री रामानुज स्वामीजी श्री दाशरथि स्वामीजी को उनके भगवद् / भागवत निष्ठा (भगवान और उनके भक्तों के प्रति स्नेह) के कारण बहुत पसन्द करते थे। जब श्री रामानुज स्वामीजी ने सन्यास लिया तब उन्होंने यह घोषणा की कि उन्होंने सब कुछ त्याग किया, सिवाय दाशरथि ऐसी श्री दाशरथि स्वामीजी की महिमा थी। श्री रामानुज स्वामीजी के सन्यास ग्रहण करते ही श्री कुरेश स्वामीजी और श्री दाशरथि स्वामीजी उनके पहले शिष्य बने। दोनों ने शास्त्र (उभय वेदान्त – संस्कृत और अरूलिच्चेयल) और उसके तत्व को श्री रामानुज स्वामीजी से ही सीखा। जब श्री रामानुज स्वामीजी कांचीपुरम से श्रीरंगम के लिये प्रस्थान किया तो वह दोनों भी उनके साथ निकल गये। श्री रामानुज स्वामीजी की आज्ञानुसार श्री दाशरथि स्वामीजी ने मंदिर के देख रेख का शासन पूर्णत: अपने हाथों में लिया और यह सुनिश्चित किया कि मंदिर का सभी कार्य सही तरीके से हो रहा है।

जब श्री गोष्ठीपूर्ण स्वामीजी ने श्री रामानुज स्वामीजी को चरम श्लोक का अर्थ समझाया तब श्री दाशरथि स्वामीजी ने श्री रामानुज स्वामीजी से यह उन्हें भी सिखाने के लिये प्रार्थना की। श्री रामानुज स्वामीजी ने श्री दाशरथि स्वामीजी को श्री गोष्ठीपूर्ण स्वामीजी के पास जाकर उनसे प्रार्थना करने के लिये कहा। श्री दाशरथि स्वामीजी श्री गोष्ठीपूर्ण स्वामीजी के तिरुमाली में ६ महीने रहकर उनकी विनम्रता पूर्वक सेवा की। ६ महिने के पश्चात् जब श्री दाशरथि स्वामीजी ने श्री गोष्ठीपूर्ण स्वामीजी को चरम श्लोक का अर्थ सिखाने के लिये प्रार्थना कीया तो स्वामीजी ने कहा कि श्री रामानुज स्वामीजी ही स्वयं उन्हें सिखायेंगे एक बार उनमें पूर्णत आत्म गुण आ जाये। श्री गोष्ठीपूर्ण स्वामीजी ने अपने चरण कमल श्री दाशरथि स्वामीजी के मस्तक पर रखा और जाने के लिये कहा। श्री रामानुज स्वामीजी ने श्री दाशरथि स्वामीजी को आते देख उनके भाव से बहुत खुश हुये और एक ही बार में उन्हें चरम श्लोक का श्रेष्ठ अर्थ समझाया।

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श्री दाशरथि स्वामीजी का श्री रामानुज स्वामीजी के प्रति पूर्णत: समर्पण इस चरित्र के द्वारा समझा जा सकता है। एक बार श्री महापूर्ण स्वामीजी की बेटी श्री अतुलांबाजी अपने सास के पास जाती है और कहती है कि नदी में स्नान करने के लिये जाते समय उनके साथ कोई आए सुरक्षा / सहयोग के हिसाब से। उनकी सास कहती है “तुम्हें स्वयं अपने साथ सहायक को लाना होगा”। श्री अतुलांबाजी अपने पिताजी के पास जाकर उनसे एक सहायक का प्रबन्ध करने के लिये कहती है। श्री महापूर्ण स्वामीजी कहते हैं क्योंकि वे पूर्णत: श्री रामानुज स्वामीजी पर निर्भर हैं, उन्हें उनके पास जाकर ही विनती करनी होगी। श्री रामानुज स्वामीजी इधर उधर देखते हैं और श्री दाशरथि स्वामीजी को देखकर उन्हें श्री अतुलांबाजी के साथ सहायक के तौर पर जाने के लिये कहते हैं। श्री दाशरथि स्वामीजी आनंदित होकर अपने आचार्य की आज्ञा का पालन करते हुए श्री अतुलांबाजी के साथ चले गये। वह निरन्तर उनकी मदद करते थे। श्री अतुलांबाजी के ससुरालवाले श्री दाशरथि स्वामीजी (जो बड़े विद्वान और श्री रामानुज स्वामीजी के प्रमुख शिष्यों मे से एक) को उनके तिरुमाली में इतना नीच काम करते देख दु:खी होने लगे और उन्हें यह बन्द करने के लिये कहा। श्री दाशरथि स्वामीजी ने तुरन्त कहा कि यह श्री रामानुज स्वामीजी की आज्ञा है और वह इसका पालन करेंगे। वह तुरन्त श्री महापूर्ण स्वामीजी के पास जाते हैं जो उन्हें श्री रामानुज स्वामीजी के पास भेजते हैं। श्री रामानुज स्वामीजी ने कहा “आपको एक सहायक की जरूरत थी और मैंने एक भेज दिया अगर आपको वह नहीं चाहिये तो उसे वापस भेज दीजिये”। उनको अपनी गलती का एहसास हो गया और श्री दाशरथि स्वामीजी को उनके यहाँ काम करने से रोक दिया। उनको श्री महापूर्ण स्वामीजी, श्री रामानुज स्वामीजी, श्री दाशरथि स्वामीजी और श्री अतुलांबाजी की महिमा का पता चला और फिर उन्होंने श्री अतुलांबाजी का अच्छा ध्यान रखा। यह घटना श्री दाशरथि स्वामीजी की बढाई को दर्शाता है जहाँ वह अपने आचार्य के शब्दों का पूरी तरह पालन करते हैं। हम यह आसानी से समझ सकते हैं कि अगर कोई श्री रामानुज स्वामीजी के चरण पादुका घोषित हैं तो उसमे यह सब अच्छे गुण होना चाहिये और श्री दाशरथि स्वामीजी इन सब अच्छे गुणों के सारसंग्रह थे।

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शैव राजा के अत्याचार से श्री दाशरथि स्वामीजी श्री रामानुज स्वामीजी के साथ मेलकोटे (तिरुनारायणपुरम) का भ्रमण किया। मितुलापुरी सालग्राम नामक एक जगह में बहुत लोग रहते थे जो वैदिक धर्म के खिलाफ थे। श्री रामानुज स्वामीजी ने श्री दाशरथि स्वामीजी को कहा नदी के उस स्थान को अपने चरणों से स्पर्श करें जहाँ से नदि उस गाँव में आती है और लोग वहाँ स्नान करते हैं। श्री दाशरथि स्वामीजी कृपा करते हैं और जब उस नदी में स्नान करते हैं जो अब श्री दाशरथि स्वामीजी के श्रीपाद का सम्बन्ध हैं सभी पवित्र हो जाते हैं। अगले दिन सभी श्री रामानुज स्वामीजी के पास आकार उनके शरण हो जाते हैं। अत: हम यह समझ सकते हैं कि पवित्र श्रीवैष्णव के श्रीपाद तीर्थ से सब लोग पवित्र हो जाते हैं।

कंडादै आण्डान् जो श्री दाशरथि स्वामीजी के पुत्र हैं श्री रामानुज स्वामीजी की आज्ञा लेकर उनके लिये एक अर्चा विग्रह बनाते हैं। श्री रामानुज स्वामीजी इस विग्रह को गले से लगाते हैं और इस पर बहुत प्रेम आता है। यह विग्रह बाद में उनके अवतार स्थल श्रीपेरुंबूतूर में तै पुष्यम (यह दिन आज भी श्रीपेरुंबूतुर में गुरु पुष्यम नाम से मनाया जाता है) के दिन रखते हैं। यह विग्रह स्वयं श्री रामानुज स्वामीजी को पसन्द थी।

श्री दाशरथि स्वामीजी के उपदेशों और कीर्ति व्याख्यानों के बहुत जगह में प्राप्त हैं। हम उनमे से कुछ अब देखेंगे।

  • सहस्त्रगीति २.९.२ – श्री कलिवैरिदास ईडु व्याख्यान- श्री दाशरथि स्वामीजी की उदारता को यहाँ इस घटना में बहुत सुन्दरता से प्रकट किया है। एक बार श्री दाशरथि स्वामीजी के एक शिष्य श्री गोविंदाचार्य स्वामीजी के पास जाता है उस समय श्री दाशरथि स्वामीजी नगर से बाहर गये हुये थे। श्री गोविंदाचार्य स्वामीजी उस श्रीवैष्णव से कैंकर्य लेना स्वीकार करते हैं और यह सोचकर कि उसे आचार्य सम्बन्ध प्राप्त नहीं हुआ है उसे पञ्च संस्कार की दीक्षा देते हैं और उसे अच्छा ज्ञान भी देना शुरू कर देते हैं। जब श्री दाशरथि स्वामीजी लौट कर आते हैं वह श्रीवैष्णव भी लौट कर उनकी सेवा करने लगता है। जब श्री गोविंदाचार्य स्वामीजी को यह पता चलता है तो वह दौड़ कर जाकर श्री दाशरथि स्वामीजी से कहते हैं “मुझे यह नहीं पता था कि वह आपका शिष्य है और मुझे इस अपचार के लिये क्षमा कीजिए”। श्री दाशरथि स्वामीजी शान्त रीति से उत्तर देते हैं “अगर कोई कुवें में गिरता है और उसे दो लोग बाहर निकालते हैं तो वह बहुत आसानी से बाहर आजायेगा। उसी तरह यह व्यक्ति संसार में है अगर हम दोनों इसे बाहर निकाले तो यह फायदा ही है”। इस तरह का पवित्र हृदय देखना बहुत मुश्किल है जो हमें श्री दाशरथि स्वामीजी में निरन्तर देखने को मिलता है।
  • सहस्त्रगीति ३.६.९ – श्री कलिवैरिदास ईडु व्याख्यान- इस पदिगा में भगवान के अर्चावतार के कीर्ति को दर्शाया गया है। श्री दाशरथि स्वामीजी यह समझाते हैं कि “यह मत सोचो कि परमपदनाथ अर्चावतार का रूप यहाँ अपने भक्तों को खुश करने के लिये लेते हैं बल्कि यह सोचो कि यह भगवान का अर्चावतार बहुत महत्त्व का है और वह स्पष्ट है कि वो ही परमपद में परवासुदेव है”।
  • सहस्त्रगीति ५.६.७ – श्री कलिवैरिदास ईडु व्याख्यान- इस पादिगा में भगवान का सर्व व्यापकत्व समझाया गया है। यहाँ परांकुश नायकी (श्री शठकोप स्वामीजी एक कन्या के भाव में) कहते हैं कि भगवान अपने संबंधियों का भी नाश कर देते हैं। श्री दाशरथि स्वामीजी इसकी एक सुन्दर व्याख्या करते हैं “भगवान अपनी पवित्र सुन्दरता दिखा कर” (जो उनकी तरफ आकर्षित होते हैं) उन्हें पूरी तरह पिगला देते हैं- नाश करते हैं।
  • सहस्त्रगीति ६.४.१० – श्री कलिवैरिदास ईडु व्याख्यान- यहाँ श्री दाशरथि स्वामीजी का अर्चावतार के प्रति लगाव और चिन्ता श्री कलिवैरिदास स्वामीजी समझाते हैं। श्री कलिवैरिदास स्वामीजी श्री वेदान्त स्वामीजी का वर्णन बताते हैं जिसमे श्री गोविंदाचार्य स्वामीजी और श्री दाशरथि स्वामीजी हैं। इस संसार में बहुत से लोग हैं जो भगवान को पसन्द नहीं हैं। अर्चावतार भगवान बहुत मृदु स्वभाव के हैं और अपने आप इन भक्तों पर ही पूर्णत: निर्भर रखते हैं। ब्रह्मोत्सव के सामापन के बाद श्री गोविंदाचार्य स्वामीजी और श्री दाशरथि स्वामीजी मिलते हैं, एक दूसरे को आदर देते हैं, गले लगाते हैं और खुशी प्रकट करते हैं कि श्रीरंगनाथ भगवान उत्सव के बाद अपने आस्थान में सुरक्षित पहुँच गये हैं। वह अपने पूर्वाचार्यों के स्वभाव को, जो हमेशा भगवान के मंगलाशासन के तरफ ध्यान देते थे, सच मानते थे।
  • सहस्त्रगीति ६.४.१० – श्री कलिवैरिदास ईडु व्याख्यान- जब पराशर भट्टर स्वामीजी श्री कुरेश स्वामीजी से “सिरुमामनिसर” (सिरु यानि छोटा और मा यानि बड़ा – कैसे एक हीं व्यक्ति में छोटा और बड़ा आता है) के बारें पूछते हैं तब श्री कुरेश स्वामीजी कहते हैं श्री दाशरथि स्वामीजी, श्री देवराजमुनि स्वामीजी और श्री गोविंदाचार्य स्वामीजी अवस्था में छोटे हैं (और हमारे जैसे ही हैं भोजन पर निर्भर अपना जीवन चलाने के लिये) परन्तु भगवान के प्रति भक्ति में वें नित्य सुरियों से भी बड़े हैं- इस तरह छोटा और बड़ा दोनों गुण एक हीं व्यक्ति में हैं।
  • सहस्त्रगीति ९.२.८ – श्री कलिवैरिदास ईडु व्याख्यान- श्रीरंगम में श्रीजयन्ती पुरप्पादु के समय वंगीप्पुरतु नम्बी अहीर गोप कन्याओं के समुह में मिलकर वहाँ भगवान की पुजा करते हैं। श्री दाशरथि स्वामीजी उनसे पूछते हैं कि उन्होंने क्या कहा जब वह उस समुह में थे। नम्बी कहते हैं “मैंने कहा विजयस्व”। श्री दाशरथि स्वामीजी कहते हैं जब आप उन गोप कन्याओं के समुह में हैं तब आप उन्हें उनकी भाषा में बढाई करना था नाकि कठिन संस्कृत में।

इस तरह हमने श्री दाशरथि स्वामीजी के सुन्दर जीवन के बारें में कुछ देखा। वह पूर्णत: भागवत निष्ठावाले थे और स्वयं श्री रामानुज स्वामीजी के करीब थे। हम उनके चरण कमलों में प्रार्थना करते हैं कि थोड़ी सी हम में भी भागवत निष्ठा आ जायें।

श्री दाशरथि स्वामीजी कि तनियन

पादुके यतिराजस्य कथयन्ति यदाख्यया
तस्य दाशरथे: पादौ शिरसा धारयाम्यहम्

अडियेन् केशव रामानुज दासन्

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