कोयिल कन्दाडै अप्पन्

श्रीः
श्रीमते शठकोपाय नमः
श्रीमते रामानुजाय नमः
श्रीमद् वरवरमुनये नमः
श्री वानाचलमहामुनये नमः

untitled1कोयिल कन्दाडै अप्पन् – कांचीपुरम अप्पन स्वामी तिरुमाळिगै

तिरुनक्षत्र: भाद्रपद, मघा

तीर्थम्: कार्तिक शुक्ल पंचमी

अवतार स्थल: श्रीरंगम

आचार्य: मणवाल मामुनिगल/ श्रीवरवरमुनी स्वामीजी

रचनाएँ: वरवरमुनि वैभव विजयं

मुदलियाण्डान्/दाशरथि स्वामीजी (जिन्हें यतिराज पादुका- श्रीरामानुज स्वामीजी के चरणकमलों की पादुका के नाम से भी जाना जाता है) के प्रसिद्ध वंश में जन्मे, देवराज थोज्हप्पर के पुत्र और कोयिल कन्दाडै अण्णन् के अनुज, का जन्म नाम श्रीनिवास था। वे आगे चलकर मणवाल मामुनिगल/ श्रीवरवरमुनी स्वामीजी के प्रिय शिष्यों में से एक हुए।

जब श्रीवरवरमुनि स्वामीजी आलवार तिरुनागरी से श्रीरंगम पधारे, श्रीरंगनाथ उन्हें श्रीरंगम में ही निवास करने और सत संप्रदाय का पालन पोषण करने का आदेश देते हैं। तब श्रीवरवरमुनि स्वामीजी सभी पूर्वाचार्यों के ग्रंथ एकत्रित करना प्रारंभ करते हैं, उन्हें पुर्णतः संकलित करते हैं और नियमित रूप से ग्रंथ कालक्षेप प्रदान करते हैं। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के दिव्य वैभव से प्रभावित होकर, बहुत से लोगों ने (आचार्य पुरुषों सहित) उनके चरण कमलों में आश्रय प्राप्त किया।

भगवान की दिव्य इच्छा के अनुसार, कोयिल कन्दाडै अण्णन् (दाशरथि स्वामीजी के वंश में उत्पन्न होने वाले एक प्रधान आचार्य) श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के शिष्य हुए और अष्ट दिग्गजों (श्रीवरवरमुनि स्वामीजी द्वारा नियुक्त सत-संप्रदाय का प्रचार करनेवाले आठ अनुयायियों) में से एक हुए। जब वे श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के चरण कमलों का आश्रय प्राप्त करने के लिए आये, वे अपने बहुत से संबंधियों को भी साथ लाये और वे सभी श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के शिष्य हुए। उन्ही में एक उनके भ्राता कोयिल कन्दाडै अप्पन् थे जिन पर उस समय श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने कृपा की थी। उनकी तनियन से हम समझ सकते हैं कि वे पुर्णतः चरम पर्व निष्ठा (भागवतों और आचार्य की सेवा) में स्थित थे।

एरुम्बी अप्पा (श्रीवरवरमुनी स्वामीजी के अन्य शिष्य) अपने पूर्व दिनचर्या (श्रीवरवरमुनी स्वामीजी की दैनिक गतिविधियों की व्याख्या करते हुए एक दिव्य ग्रंथ) के श्लोक 4 में एक सुंदर द्रष्टांत बताते हैं।

पार्शवत: पाणीपद्माभ्याम परिगृह्य भवतप्रियऊ।
विनयस्यन्तं सनैर अंगरी मृदुलौ मेदिनितले।।

शब्दार्थ: एरुम्बी अप्पा, श्रीवरवरमुनी स्वामीजी से कहते हैं – “स्वामी के दोनों ओर, उनके दो प्रिय शिष्य (कोइल अण्णन और कोइल अप्पन) हैं और आप अपने कमल के समान कोमल हाथों से उन्हें द्रढ़ता से पकडे हुए, अपने कोमल चरणारविन्दों से धरती पर चल रहे हैं”।

-श्रीवरवरमुनी स्वामीजी के दोनों और अण्णन और अप्पन (अप्पन स्वामी के निवास से प्राप्त चित्र, कांचीपुरम)श्रीवरवरमुनी स्वामीजी के दोनों ओर अण्णन और अप्पन (अप्पन स्वामी के निवास से प्राप्त चित्र, कांचीपुरम)

तिरुमलिसै अण्णावप्पंगार, दिनचर्या स्त्रोत्र के अपने व्याख्यान में, दर्शाते हैं कि यहाँ दो प्रिय शिष्यों से अभिप्राय है “कोइल अण्णन और कोइल अप्पन”। यहाँ एक प्रश्न उठता है– क्या श्रीवरवरमुनी स्वामीजी को त्रिदंड धारण नहीं करना चाहिए, जैसा कि पांचरात्र तत्वसार संहिता में कहा गया है कि ‘एक सन्यासी को सदा त्रिदंड धारण करना चाहिए’? अण्णावप्पंगार इसे भली प्रकार से समझाते हैं:

  • ऐसे सन्यासी के लिए जो सर्व सिद्ध है– उनके त्रिदंड धारण न करने में कोई दोष नहीं है।
  • एक सन्यासी जो निरंतर भगवान के ध्यान में रहता है, जिसका व्यवहार कुशल है और जिन्होंने अपने आचार्य से शास्त्रों का अर्थ भली प्रकार से गृहण किया है, जिसको भगवत विषय में जानकारी है और जिनका अपनी इन्द्रियों और सम्पूर्ण विश्व पर नियंत्रण है– ऐसे सन्यासी के लिए उनके त्रिदंड की आवश्यकता नहीं है।
  • भगवान को साष्टांग प्रणाम करते हुए, त्रिदंड साष्टांग में व्यवधान हो सकता है, इसलिए वे उस समय त्रिदंड साथ नहीं ले जाते।

इस प्रकार हमने कोयिल कन्दाडै अप्पन् के गौरवशाली जीवन की कुछ झलक देखी। वे श्रीवरवरमुनी स्वामीजी के बहुत प्रिय थे। हम सब उनके श्री चरण कमलो में प्रार्थना करते हैं कि हम दासों को भी उनकी अंश मात्र आचार्य अभिमान की प्राप्ति हो।

कोयिल कन्दाडै अप्पन् की तनियन:

वरद्गुरु चरणं वरवरमुनिवर्य गणकृपा पात्रं ।
प्रवरगुणा रत्न जलदिम् प्रणमामि श्रीनिवास गुरुवर्यम् ।।

-अदियेन् भगवति रामानुजदासी

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