श्री:
श्रीमते शठकोपाय नमः
श्रीमते रामानुजाय नम:
श्रीमदवरवरमुनयेनम:
श्री वानाचलमहामुनयेनमः
तिरुनक्षत्र : चैत्र, चित्रा
अवतार स्थल: कांचीपुरम
आचार्य: एन्गलाल्वान्
शिष्य: श्रुतप्रकाशिका भट्टर (सुदर्शन सूरी), किदाम्बी अप्पिल्लार आदि
स्थान जहाँ परमपद प्राप्त किया: कांचीपुरम
रचनायें: तत्व सारं, परत्ववादी पंचकं (वृस्तत विवरण http://ponnadi.blogspot.in/2012/10/archavathara-anubhavam-parathvadhi.html पर), गजेन्द्र मोक्ष श्लोक द्वयं, परमार्थ श्लोक द्वयं, प्रपन्न पारिजात, चरमोपाय संग्रहम्, श्री भाष्य उपन्यासं, प्रमेय माला, यातिराज विजय भाणं, आदि।
कांचीपुरम में जन्म के बाद उनके माता पिता ने उनका नाम वरदराजन रखा। वे नादतुर आल्वान के पौत्र हैं, जो स्वयं एम्पेरुमानार (रामानुज स्वामीजी) द्वारा नियुक्त किये गए श्रीभाष्य सिंहासनाधिपतियों में एक हैं।
वे प्रतिदिन कांचीपुर के देव पेरुमाल (श्री वरदराज भगवान्) की सेवा में गर्म दूध का भोग लगाते थे। जैसे एक माता ठीक तरह से जाँच कर अपने बालक के लिए दूध बनाती है, उसी प्रकार वे भी भगवान के लिए उत्तम गर्माहट युक्त, उचित ताप का दूध बनाया करते थे। इसीलिए स्वयं देव पेरुमाल ने सानुराग उन्हें अम्माल और वातस्य वरदाचार्य कहकर सम्मानित किया।
जब अम्माल अपने दादाजी से श्रीभाष्य सीखने की विनती करते हैं, तो वे अपनी वृद्धावस्था के कारण अम्माल से कहते हैं कि वे एंगलाल्वान के पास जाएँ और उनसे श्रीभाष्य सीखें। अम्माल, एंगलाल्वान के निवास पर जाकर दरवाज़ा खटखटाते हैं। जब एंगलाल्वान पूछते हैं “कौन है?” तब अम्माल उत्तर देते हैं “मैं वरदराजन”। इस पर एंगलाल्वान कहते हैं “मैं के मरने के बाद वापस आना”। अम्माल अपने निवास पर लौट आते हैं और अपने दादाजी को पूरा द्रष्टांत बताते हैं। नदातुर आल्वान उन्हें समझाते हैं कि हमें हमेशा पूर्ण विनम्रता से अपना परिचय “अदियेन”(दास) ऐसा कहकर देना चाहिए और मैं, मेरा आदि जो अहंकार सूचक शब्द है उनका प्रयोग नहीं करना चाहिए। सिद्धांत को समझकर, अम्माल एंगलाल्वान के पास लौटते हैं और फिर दरवाज़ा खटखटाते हैं। इस समय जब इंगलाल्वान पूछते हैं कि दरवाज़े पर कौन है, तब अम्माल कहते हैं “अदियेन् वरदराजन”। ऐसा सुनकर प्रसन्न, एंगलाल्वान, अम्माल का स्वागत करते हैं, उन्हें अपना शिष्य स्वीकार करके उन्हें संप्रदाय के मूल्यवान सिद्धांत सिखाते हैं। क्यूंकि एंगलाल्वान नडातुर अम्माल जैसे महान विद्वान् के आचार्य हैं, उन्हें अम्माल के आचार्य के रूप में भी जाना जाता है।
अम्माल के प्रमुख शिष्य श्रुतप्रकाशिका भट्टर हैं (सुदर्शन सूरी– वेद व्यास भट्टर के पौत्र), जिन्होंने अम्माल से श्रीभाष्य सीखा और श्रीभाष्य पर महान व्याख्यान श्रुत प्रकाशिक और वेदार्थ संग्रह और शरणागति गद्यम पर भी व्याख्यान लिखा।
एक बार अम्माल दर्जनों श्रीवैष्णवों को श्रीभाष्य सिखा रहे थे। शिष्य कहते भक्ति योग का पालन करना बहुत कठिन है। तब वे उन्हें प्रपत्ति के बारे में समझाते हैं। वे लोग फिर कहते हैं कि प्रपत्ति का अभ्यास करना तो और भी कठिन है। उस समय अम्माल कहते हैं, “एम्पेरुमानार (रामानुज स्वामीजी) के चरण कमल ही हमारा एक मात्र आश्रय है केवल ऐसा ध्यान करो और यही तुम्हें मुक्ती प्रदान करेगा”।
चरमोपय निर्णय में भी समान घटना दर्शाई गयी है।
नडातुर अम्माल कुछ श्री वैष्णवों को श्रीभाष्य का अध्यापन कर रहे थे। उस समय उनमें से कुछ लोग ने कहा “जीवात्मा द्वारा भक्ति योग का अभ्यास नहीं किया जा सकता क्यूंकि वह बहुत कठिन है (उसमें बहुत से अधिकारों की आवश्यकता है जैसे पुरुष होना, त्रिवर्ण- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, एक समान ध्यान और भगवान की सेवा आदि) और प्रपत्ति भी नहीं की जा सकती क्यूंकि वह स्वरुप के विरुद्ध है (जीवात्मा पुर्णतः भगवान के आधीन है, चरम लक्ष्य प्राप्त करने के लिए स्वयं के द्वारा किया गया कोई भी कार्य उस पराधीनता के विरुद्ध है)। ऐसी स्थिति में, जीवात्मा चरम लक्ष्य को कैसे प्राप्त कर सकता है?”। नडातुर अम्माल कहते हैं “उनके लिए जो यह सब करने में असमर्थ है, एम्पेरुमानार (रामानुज स्वामीजी) का अभिमान ही परम मार्ग है। इसके अलावा और कोई उपाय नहीं है। मैं इस बात पर द्रढ़ता से विश्वास करता हूँ”। अम्माल के अंतिम निर्देश इस लोकप्रिय श्लोक में समझाया गया है:
प्रयाण काले चतुरस् च्वशिष्याण् पदातिकस्ताण् वरदो ही वीक्ष्य ।
भक्ति प्रपत्ति यदि दुष्करेव: रामानुजार्यम् नमतेत्यवादित् ।।
उनके अंतिम दिनों में, जब नडातुर अम्माल के शिष्य उनसे पूछते हैं कि हमारे आश्रय क्या है, अम्माल कहते हैं “भक्ति और प्रपत्ति तुम्हारे स्वरुप के लिए उपयुक्त नहीं है; केवल एम्पेरुमानार (रामानुज स्वामीजी) के चरण शरण होकर पुर्णतः उनके आश्रित हो जाओ; तुम्हें परम लक्ष्य प्राप्त हो जायेगा”।
वार्ता माला में, कई द्रष्टांतों में नडातुर अम्माल को दर्शाया गया है। उनमें से कुछ हम अब देखते हैं:
- 118 – एंगलाल्वान नडातुर अम्माल को चरम श्लोक का उपदेश दे रहे थे। “सर्व धर्मान् परित्यज्य” समझाते हुए– नडातुर अम्माल सोचते हैं कि भगवान इतनी स्वतंत्रता से शास्त्रों में बताये गए सभी धर्मों (उपायों) का त्याग करने के लिए क्यूँ कह रहे हैं? एंगलाल्वान कहते हैं- यह भगवान का वास्तविक स्वरुप है– वे पुर्णतः स्वतंत्र हैं– इसलिए उनके लिए ऐसा कहना एकदम उपयुक्त है। इसके अतिरिक्त वे कहते हैं कि भगवान जीवात्मा को किसी भी अन्य उपायों, जो जीवात्मा के वस्तविक स्वरुप के विरुद्ध है, में प्रयुक्त होने से बचाते हैं– क्यूंकि जीवात्मा पूर्ण रूप से भगवान के आश्रित है, जीवात्मा के लिए भगवान को उपाय स्वीकार करना ही उपयुक्त है। इसलिए, एंगलाल्वान स्पष्टतया समझाते हैं कि यहाँ भगवान के शब्द सबसे उपयुक्त है।
- 198 – जब नडातुर अम्माल और एक श्री वैष्णव जिनका नाम आलीपिल्लान था (संभवतया एक अब्राह्मण श्रीवैष्णव या आचार्य पुरुष्कार हीन) एक साथ प्रसाद पा रहे थे, पेरुंगुरपिल्लाई नामक एक अन्य श्रीवैष्णव उसे बहुत आनंद से देखते हैं और कहते हैं “आपको इन श्री वैष्णव के साथ स्वतंत्र रूप से घुलते-मिलते देखे बिना, यदि मैं केवल सामान्य निर्देश सुनाता कि वर्णाश्रम धर्म का सब समय पालन करना चाहिए, तो मैं सारतत्व को पूरी तरह से खो देता”। अम्माल कहते हैं “सत्य यह है कि कोई भी/ कैसा भी, जो एक सच्चे आचार्य से सम्बंधित हो हमें उसे स्वीकार करके गले से लगा लेना चाहिए। इसलिए एक महान श्रीवैष्णव के साथ घुलने मिलने के मेरे इस अनुष्ठान को विशेष निर्देश (भागवत धर्म) जो हमारे पूर्वाचार्यों द्वारा समझाया गया है के अनुसार समझना चाहिए”।
पिल्लै लोकाचार्य के तत्व त्रय के सूत्र 35 के व्याख्यान में (http://ponnadi.blogspot.in/p/thathva-thrayam.html), मणवाल मामुनिगल अम्माल के तत्व सारं के एक सुंदर श्लोक के माध्यम से प्रत्येक कार्य के प्रथम विचार में जीव का स्वातंत्रियम् (भगवान द्वारा जीव को दी गयी स्वतंत्रता) स्थापित करते हैं और यह बताते हैं कि कैसे भगवान प्रत्येक कार्य के प्रथम विचार द्वारा जीवात्मा का मार्ग दर्शन करते हैं।
इस तरह हमने नडातुर अम्माल के गौरवशाली जीवन की कुछ झलक देखी। वे एक महान विद्वान् थे और एंगलाल्वान के बहुत प्रिय थे। हम सब उनके श्री चरण कमलो में प्रार्थना करते हैं कि हम दासों को भी उनकी अंश मात्र भागवत निष्ठा की प्राप्ति हो।
नडातुर अम्माल की तनियन:
वन्देहम् वरदार्यम् तम् वत्साबी जनभूषणं ।
भाष्यामृतं प्रदानाद्य संजीवयती मामपि ।।
-अदियेन् भगवति रामानुजदासी
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